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________________ २८२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका परिणाम उसके अज्ञानादि रूप संसारका कर्ता नहीं होता । पर परको करे ऐसा वस्तु स्वभाव नहीं । वह स्वयं अज्ञानादि रूप परिणामको जन्म देता है, इसलिए स्वयं उसका कर्ता होता है। फिर भी इसके जो ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल कर्मका बन्ध होता है उस सम्बन्धमें नियम यह है कि प्रति समय जैसे ही यह जीव स्वरूपसे भिन्न परमें एकत्वबुद्धि या इष्टानिष्ट बृद्धि करता है वैसे ही ज्ञानावरणादिरूप परिणमनकी योग्यता वाले पुद्गल स्कन्ध स्वयं उससे एक क्षेत्रावगाहरूप बन्धको प्राप्त होकर फल फालके प्राप्त होनेपर तदनुरूप फल देने में निमित्त होते हैं । जीव कर्मका यह बनाव अनादिकाल से निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धवश स्वयं बना चला आ रहा है। इसके अनादिमें निमित्त नहीं। पहले जिन छह द्रव्योंका हम निर्देश कर आये हैं । उनमेंसे चार द्रव्य तो सदा ही अपने स्वभावके अनुकूल ही कार्यको जन्म देते हैं, शेष जो जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं उनमेसे पुद् गलका स्वभाव तो ऐसा है कि वह कदाचित् स्वभावमें रहते हुए भी बन्धके अनुकूल अवस्थाके होनेपर दूसरे पुद्गल के साथ बन्धको प्राप्त हो जाता है और जब तक वह इस अवस्थामें रहता है तब तक वह अपनी इकाईपनेसे विमुख होकर स्कन्ध संज्ञासे व्यवहृत होता रहता है। इसके अतिरिक्त जो जीव है उसका स्वभाव ऐसा नहीं है कि वह स्वयंको कर्मसे आवद्ध कर दुर्गति का पात्र बने। अनादिसे वह स्वयंको भूला हुआ है। उसकी इस भूलका ही परिणाम है कि वह दुर्गतिका पात्र बना चला आ रहा है । उसे स्वयंमें यही अनुभव करना है और उसके मूल कारणके रूपमें अपने अज्ञानभाव और राग-द्वेषको जानकर उनसे मुक्त होनेका उपाय करना है। यही एक मुख्य प्रयोजन है जिसे ध्यानमें रखकर जिनागममें तत्व प्रारूपणाका दूसरा प्रकार परिलक्षित होता है। आत्मानुभूति, आत्मज्ञान और आत्मचर्या इन तीनों रूप परिणत आत्मा मोक्षमार्ग है । उनमें सम्यग्दर्शन मूल है । ( दंसणमूलो धम्मो ' ) उसी प्रयोजनसे जीवादि नौ पदार्थ या सात तत्त्व कहे गये हैं । इनमें आत्मा मुख्य है। विश्लेषण द्वारा उसके मूल स्वरूपपर प्रकाश डालना इस कथनका मुख्य प्रयोजन है । उसीसे हम जानते हैं कि मैं चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप अखण्ड एक आत्मा हूँ। अन्य जितनी उपाधि हैं, वह सब में नहीं हूँ। वह मुझसे सर्वथा भिन्न है। इतना ही नहीं, वह यह भी जानता है कि यद्यपि नर-नारकादि जीव विशेषतः अजीव पुण्य पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष स्वरूप इन नौ पदार्थों में ही व्यापता हूँ।' जीवनके रंग मंचपर कभी मैं नारकी बनकर अवतरित होता हूँ तो कभी मनुष्य बनकर कभी पुण्यात्माकी भूमिका निभाता हूँ तो कभी पापीकी आदि। इतना सब होते हुए भी में चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप अपने एकत्वको कभी नहीं छोड़ता हूँ। यही वह संकल्प है जो इस जीवको आत्म स्वतन्त्रताके प्रतीक स्वरूप मोक्ष मार्ग में अग्रसर कर आत्माका साक्षात्कार करानेमें साधक होता है। ज्ञान वैराग्य सम्पन्न मोक्षमार्ग के पथिककी यह प्रथम भूमिका है। यह जीवोंके आयतन जानकर पाँच उदुम्बर फलों तथा मद्य, मांस और मधुका पूर्ण त्यागी होता है । इन्हें आठ मूल गुण कहते हैं जो इसके नियमसे होते हैं । साथ ही वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग १. समयसार गा० १३ २. तत्त्वार्थसूत्र १-४ ३. समयसार कलश ७ ४. सागारधर्मामृत २-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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