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________________ चतुर्थ खण्ड : २८१ सत् कहो या द्रव्य दोनोंका अर्थ एक है। इसी कारण जैनदर्शनमें अभावको सर्वथा अभावरूप न स्वीकार करके उसे भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है।' नियम यह है कि सत्का कभी नाश नहीं होता और असतका कभी उत्पाद नहीं होता। ऐसा होते भी वह (सत्) सर्वथा कूटस्थ नहीं है-क्रियाशील है। यही कारण है कि प्रकृतमें सत्को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूपसे क्रियात्मक स्वीकार किया गया है। अपने अन्वय स्वभावके कारण जहाँ वह ध्रौव्य है वहीं व्यतिरेक (पर्यायरूप धर्मके कारण वही उत्पाद व्यय स्वरूप है। इन तीनोंमें काल भेद नहीं है जिसे हम नवोन पर्यायका उत्पाद कहते हैं यद्यपि वही पूर्व पर्यायका व्यय है, पर इनमें लक्षण भेद होनेसे ये दो स्वीकार किये गये हैं।" इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य एक ही कालमें क्रियात्मक है यह सिद्ध होता है। इस क्रियात्मक द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य उसके ये तीनों ही अंश सत् हैं। इनमें कथंचित् अभेद है, क्योंकि तीनों की सत्ता एक है। जो तीनोंमेंसे किसी एककी सत्ता है वही अन्य दो की है। यह द्रव्यका सामान्य आत्मभत लक्षण है। इससे प्रत्येक द्रव्य परिणामी नित्य है यह सिद्ध होता है, क्योंकि समय-समय जो उत्पाद व्यय होता है वह उसका परिणामीपना है और ऐसा होते हए भी वह अपने ध्रुवरूप मूल स्वभावको नहीं छोड़ता, उसके द्वारा वह सदा हो उत्पाद व्यय रूप परिणामको व्यापता रहता है। यह उसको नित्यता है। आगममें प्रत्येक द्रव्यको जो अनेकान्त स्वरूप कहा गया है उसका भी यही कारण है । द्रव्यमें उत्पाद-व्यय ये कार्य हैं। वे होते कैसे हैं यह प्रश्न है-स्वयं या परसे। किसी एक पक्षके स्वीकार करनेपर एकान्तका दोष आता है. उभयतः स्वीकार करनेपर जीवका मोक्ष, स्वरूपसे कथंचित् स्वाश्रित है और कथंचित पराश्रित है ऐसा मानना पड़ता है। जो यक्तियक्त नहीं है। अतः वस्तुस्थिति क्या है यह विचारणीय है। समाधान यह है कि किसी भी द्रव्यको अन्य कोई बनाता नहीं वह स्वयं होता है। अतः उत्पाद व्यय रूप कार्यको प्रत्येक द्रव्य स्वयं करता है। वही स्वयं कर्ता है और वही स्वयं कर्म है। करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण भी वही स्वयं है । अविनाभाव सम्बन्धवश उसकी सिद्धि मात्रपरसे होती है, इसीलिये उसे कार्य (उपचार) का साधक कहा जाता है। परने किया यह व्यवहार है, परमार्थ नहीं, क्योंकि परने किया इसे परमार्थ माननेपर दो द्रव्योंमें एकत्वकी आपत्ति आती है जो युक्तियुक्त नहीं है। अतः प्रकृतमें अनेकान्त इस प्रकार घटित होता है। ___ उत्पाद-व्यय कथंचित् स्वयं होते हैं, क्योंकि वे द्रव्यके स्वरूप हैं । कथंचित् परसे होनेका व्यवहार है, क्योंकि अविनाभाव सम्बन्धवश पर उनकी सिद्धिमें निमित्त है। जैनधर्ममें प्रत्येक द्रव्यको स्वरूपसे जो स्वाश्रित (स्वाधीन) माना गया है उसका कारण भी यही है । जीवने परमें एकत्व बुद्धि करके अपने अपराधवश अपना भवभ्रमण रूप संसार स्वयं बनाया है। १. भवत्यम्भवो हि भावधर्मः युक्त्यनु । २. प्रवचनसार गा० १०४ सर्थिसिद्धि-३० प्रवचनसार गा० १०१ आप्तमीमांसा कारिका' ५८ ६. आप्तमीमांसा कारिका ७५ orm sur Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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