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________________ चतुर्थ खण्ड : २८३ वाणी स्वरूप जिनागम इसके आराध्य होते हैं। यह आजीविकाके ऐसे ही साधनोंको अपनाता है जिनमें संकल्पपूर्वक हिंसाकी सम्भावना न हो । दसरी भूमिकाका श्रमणोपासक व्रती होता है । व्रत बारह है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । यह इनका निर्दोष विधिसे पालन करता है। कदाचित दोषका उद्भव होनेपर गुरुकी साक्षीपूर्वक लगे दोषोंका परिमार्जन करता है और इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए उस भूमिका तक वृद्धि करता है जहाँ जाकर लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रह जाता है। तीसरी भूमिका श्रमण की है। यह महाव्रती होता है। यह बनमें जाकर गुरुकी साक्षीपूर्वक जिन व्रतोंको अंगीकार करता है उन्हे गुण कहते हैं। वे २८ होते है-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक और ७ शेष गुण, शेष गुण जैसे-खडे होकर दिनमें एक बार भोजन-पानी लेना, दोनों हाथोंको पात्र बनाकर लेना, केश लुंच करना, नग्न रहना आदि । इसका जितना भी कार्य हो वह स्वावलम्बन पूर्वक ही किया जाय, मात्र इसीलिये ही यह हाथोंको पात्र बनाकर आहार ग्रहण करता है, हाथोंसे ही केशलुच करता है । रात्रिमें एक करवटसे अल्प निद्रा लेता है। यह सब इसलिए नहीं किया जाता है कि शरीरको कष्ट दिया जाय । शरीर तो जड़ है, कुछ भी करे उसे तो कष्ट होता ही नहीं, यदि कष्ट हो भी तो करने वालेको ही हो सकता है। किन्तु श्रमणका राग-द्वेषके परवश न होकर शरीरसे भिन्न आत्माकी सम्हाल करना मुख्य प्रयोजन होता है, इसीलिए वे सब क्रियाएँ उसे, जिन्हें हम कष्टकर मानते हैं, कष्टकर भासित न होकर अवश्य करणीय भासित होती हैं। यह जैनधर्म-दर्शनका सामान्य अवलोकन है । इसे दृष्टिपथमें लेनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य प्रयोजन वेद, ईश्वर कर्तृत्व और यज्ञीय हिंसाका विरोध करना पूर्वमें कभी नहीं रहा है । इसके मूल साहित्य षट्खण्डागम, कषायप्रामृत, आ० कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य, मूलाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, भगवती आराधना आदिपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है । इसलिए जो मनीषी इसे सुधारवादी धर्म कह कर इसे अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते हैं, जान पड़ता है वस्तुतः उन्होंने स्वयं अपने धर्म ग्रन्थोंका हो ठीक तरहसे अवलोकन किये बिना अपना यह मत बनाया है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो वर्तमानमें भारतीय संस्कृतिका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है उसे न केवल ब्राह्मण या वैदिक संस्कृति कहा जा सकता है और न तो श्रमण संस्कृति कहना उपयुक्त होगा। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे स्वीकार कर लेनेपर श्रमण संस्कृतिसे अनुप्राणित होकर भारतीय संस्कृतिमें जो निखार आया है उसे आसानीसे समझा जा सकता है। इससे जिन तथ्योंपर विशेष प्रकाश पड़ता है वे हैं १. इसमें सदासे प्रत्येक द्रव्यका जो स्वरूप स्वीकार किया गया है उसके अनुसार जड़, चेतन प्रत्येक द्रव्यमें अर्थक्रियाकारीपना सिद्ध होनेसे ही व्यतिरेक रूपमें ही परकर्तुत्वका निषेध होता है। १. रत्नकरण्डश्रावकाचार ४ २. सागारधर्मामृत १-१४ ३. वही अ० ४ ४. प्रवचनसार गा० २०४-२०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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