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________________ श्रमण-परम्पराका दर्शन संस्कृत साहित्यमें जिसे श्रमण पदसे अभिहित किया गया है' मूलमें वह 'समण' संज्ञापद है ।। उसर्व संस्कृत छायारूप तीन होते है-श्रमण, शमन और समन । श्रमणों-जैन साधुओंकी चर्चा इन तीनों विशेषताओंको लिये हए होती है। जिन्होंने पंचेन्द्रियोंको संवृत कर लिया है, कषायोंपर विजय प्राप्त कर ली है जो शत्रु मित्र, दुःख-सुख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी-सोना तथा जीवन-मरणमें समभाव सम्पन्न है और जो सम्यगदर्शनज्ञान चारित्रकी आराधनामें निरन्तर तत्पर हैं वे श्रमण हैं और उनका धर्म ही श्रमण धर्म है। वर्तमानमें जिसे हम जैन धर्म या आत्मधर्मके नामसे सम्बोधित करते हैं वह यही है । यह अखण्डभावसे समण संस्कृतिका प्रतिनिधित्व करता है ।। लोकमें जितने भी धर्म प्रचलित हैं उनका लिखित या अलिखित दर्शन अवश्य होता है। इसका भी अपना दर्शन है जिसके द्वारा श्रमण धर्मकी नींवके रूपमें व्यक्ति स्वातंत्र्यकी अक्षुण्ण भावसे प्रतिष्ठाकी गई है। इसे समझनेके लिये इसमें प्रतिपादित तत्त्व प्ररूपणाको हृदयंगम कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । जैसाकि समग्र आगमपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है इसमें तत्त्व प्ररूपणाके दो प्रकार परिलक्षित होते हैं-एक लोक की संरचनाके रूपमें तत्त्व प्ररूपणाका प्रकार और दूसरा मोक्ष मार्गकी दृष्टिसे तत्त्व प्ररूपणाका प्रकार । ये दोनों ही एक-दूसरेके इतने निकट है जिससे इन्हें सर्वथा जुदा नहीं किया जा सकता, केवल प्रयोजन भेदसे ही तत्त्व प्ररूपणाको दो भागोंमें विभक्त किया गया है। प्रथम प्ररूपणाके अनुसार जातिकी अपेक्षा द्रव्य छह हैं । वे अनादि अनन्त और अकृत्रिम हैं। उन्हींके समच्चयका नाम लोक है। इसलिए जैन दर्शनमें लोक भी स्वप्रतिष्ठ और अनादि अनन्त माना गया है। छह द्रव्योंके नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश । इनमेंसे काल द्रव्य सत्स्वरूप होकर भी शरीरके समान बहु प्रदेशी नहीं है, इसलिए उसे छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय माने गये हैं। पुद्गल द्रव्य या योग्यताकी अपेक्षा बहु प्रदेशी माना गया है। संख्याकी अपेक्षासे जीव द्रव्य अनंत हैं, पुद्गल उनसे अनन्त गुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं, और काल द्रव्य असंख्य है। ये सब द्रव्य स्वरूप सत्ताकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी इन सबमें घटित हो ऐसा इनका एक सामान्य लक्षण हैं, जिस कारण ये सब द्रव्य पद द्वारा अभिहित किये जाते हैं। वह हैं-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । सद् द्रव्यलक्षणम् ।" जो सत्स्वरूप हो वह द्रव्य है या सत्स्वरूप होना द्रव्यका लक्षण है। यहाँ सत और द्रव्यमें लक्ष्य और लक्षणकी अपेक्षा भेद स्वीकार करनेपर भी वे सर्वथा दो नहीं हैं, एक है-चाहे १. येषां च विरोधः शाश्वतिकः (२।४।९) इत्यस्यावकाश. श्रमणब्राह्मणम् । पातञ्जलभाष्य । २. प्रवचनसार गाथा २२६ ३. पारवतमददमतृष्णओं खो समण शब्द पृ० १०८३ ४. प्रवचनसार गा० २४०-४१ ५. तत्वार्थसूत्र ५-२९-३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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