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________________ चतुर्थ खण्ड : २७९ पूर्वक प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनके साथ या वेदक सम्यग्दर्शन (प्रथमभेद ) के साथ अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, इसी प्रकार जिस व्यक्तिने गुरुको साक्षीपूर्वक चरणानुयोगोंके अनुसार श्रावकके निरतिचार १२ व्रत स्वीकार किये हैं वे भी जीवादि तत्त्वोंके सम्यक् अभ्यासपूर्वक उक्त दोनों सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शनके साथ विरताविरत गुणस्थान के अधिकारी होते हैं । तथा जिन्होंने विधिवत् महाव्रतों या अणुव्रतोंको नहीं स्वीकार किया है । मात्र जो चतुर्थ गुणस्थानके समान प्रवृत्ति करनेमें सावधान हैं वे उक्त दोनों सम्यग्दर्शनामें से किसी एक सम्यग्दर्शनके साथ चौथे गुणस्थानके अधिकारी होते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि उपशम सम्यग्दर्शनमें दर्शन मोहनीयको उपशामना अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करणपूर्वक ही होती है । परन्तु वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्ति में जो सम्यग्दर्शन छूटने के दीर्घकाल बाद इस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करते हैं वे प्रारम्भके दो करण करके ही इसके अधिकारी होते हैं । और जो अतिशीघ्र इसे प्राप्त करते हैं वे करणपरिणामोंके बिना भी इसे प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं । उपशम सम्यग्दर्शनपूर्वक वेदक सभ्यग्दर्शनको प्राप्त किया जा सकता है इसमें किसी प्रकारका प्रयवाय नहीं है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानसे या प्रथमोपक्षम सम्यक्त्वसे भी कई जीव वेदक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। इसमें भी किसी प्रकारका प्रत्यवाय नहीं है । तथा सम्यग्दर्शन के तीसरे भेदका नाम क्षायिक सम्यग्दर्शन है । यह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनापूर्वक दर्शनमोहनी की तीनों प्रकृतियोंकी क्षपणा करके प्राप्त होता है, इसलिये इसका क्षायिक सम्यग्दर्शन यह नाम सार्थक है । इतना अवश्य है कि चारों गतियोंके जीव इसे प्रारम्भ करनेके अधिकारी नहीं होते, मात्र कर्मभूमिज मनुष्य ही केवली श्रुतकेवली के पादमूल में वेदकसम्यक्त्वपूर्वक इसका प्रारम्भ करते हैं, हाँ पूर्ति इसकी चारों गतियोंमेंसे किसी भी एक गतिमें हो सकती है । एक तो जिस मनुष्यने इसका प्रारम्भ जहाँ किया है वहीं इसकी पूर्ति हो जाती है । कदाचित् मरण हो जाय तो परभवसम्बन्धी जिस आयुका बन्ध किया हो वहाँ जाकर यह जीव उसकी पूर्ति करता है । फिर भी इसका प्रस्थापक जीव जब अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने के बाद मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा करके कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है तभी उसका मरण होकर अगले भवमें उसकी पूर्णता होती है ऐसा नियम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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