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________________ २७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पहले प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी ही उत्पत्ति होती है। यदि एक बार सम्यग्दर्शन होनेके बाद वह मिथ्यादृष्टि हो भी जाय और वेदककालके भीतर वेदक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति न होकर वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहे तो पुनः वह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके एक मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्मके साथ २६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है, कन्त सादि मिथ्यादष्टि जीवके २८. ७ और २६ प्रकतियोंकी सत्ता बन जाती है। जिस सादि मिथ्यादष्टि जीवने सम्यग्यिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिकी उद्वेलना नहीं की है उसके २८ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है । जिसने सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर ली है उसके २७ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है और जिसने सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्प्रकृति दोनोंको उद्वेलना कर ली है वह सादि मिथ्यादृष्टि होते हुए भी उसके . ६ प्रकृतियोंकी सत्ता होती है। ये तीनों ही प्रकारके जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शको प्रा-त करनेके अधिकारी हैं। इस सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति दर्शनमोहनीय कर्मके अन्तरकरण उपशमपूर्वक होती है। अनन्तातुबन्धीकर्मका अन्तरकरण उपशम नहीं होता । मात्र जिस समय यह सातिशय मिथ्यादष्टि जीव अधःप्रवत्तकरण आदि तीन करण करके अन्तरकरण उपशमपूर्वक दर्शनमोहनीय कर्मकी प्रथम स्थितिको गलाकर प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि होता है उसी समय इस जीवके अनन्तानुबन्धीका अनुदय होनेसे इसकी भी अनुदयोपश-के रूपमें परिगणना की जाती है । अतः इसी तथ्यको व्यक्त करते हुए यह कहा जाता है कि दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन ७ प्रकृतियोंके उपशमसे उपशमसम्य ग्दर्शन होता है। परन्त दर्शनमोहनीयके समान इसके अनन्तानुबन्धीका अन्तरकरण उपशम नहीं होता इतना सुनिश्चित है । यह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनका स्वरूप है। इसके सिवाय उपशमसम्यग्दर्शनका एक भेद द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन भी है जो अप्रमत्तसंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणिपर चढ़ने के सन्मुख होता है उसके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ दर्शनमोहनीयके अन्तःकरण उपशमपूर्वक होता है। यह सामान्यसे उपशम सम्यग्दर्शनके दोनों भेदोंका स्वरूप निर्देश है । सम्यग्दर्शनके दूसरे भेदका नाम क्षयोपशम सम्यग्दर्शन है। यह सम्यक्त्वमोहनीयके उदयपूर्वक होनेसे इसका दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व भी है। यह उपशम सभ्यग्दर्शन पूर्वक भी होता है और मिथ्यादर्शनपूर्वक भी होता है । इतनी विशेषता है कि जो सम्यग्दर्शनसे च्युत होकर मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके भीतर ही इस सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होना सम्भव है। किन्तु वेदक कालके व्यतीत होनेपर वह मात्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है। इसके अनेक भेद हैं । प्रथम भेदमें अनन्तानबन्धी ४, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय रहता है और सम्यक प्रकृतिका उदय रहता है। दूसरे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विस योजना रहती है, तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्या वका अनुदय और सम्यक प्रकतिका उदय रहता है। तीसरे भेदमें अनन्तानबन्धी ४ की विसंयोजना, मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यग्मिथ्यात्वका अनुदय और सम्यकप्रकृतिका उदय रहता है तथा चौथे भेदमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा होकर सम्यक प्रकृतिका उदय रहता है । कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन इस चौथे भेदकी ही संज्ञा है। इन चार भेदोंमेंसे अन्तिम दो भेद, जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है उसीके होते हैं। इस प्रकार आगमानुसार वेदक सम्यक्त्वके चार भेद जानने चाहिये । जो प्रवृज्या देने में समर्थ योग्य गुरुकी शरणमें जाकर चरणानुयोगके अनुसार २८ मूलगुणोंको अंगीकार करते हैं ऐसे कोई द्रव्यलिंगी साधु प्रवज्या लेनेके अनन्तर या कालान्तरमें आगमानुसार जीवादि तत्त्वोंके अभ्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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