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________________ चतुर्थ खण्ड २७७ प्रकार प्रदेशबन्धका कारण योग है उसी प्रकार प्रकृतिबन्धका कारण भी योग है, क्योंकि उसके बिना उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, और ऐसा नियम है कि जिसके बिना जिसकी उत्पत्ति नहीं होती वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है । (११) फिर भी यह प्रश्न तो खड़ा ही रहता है कि जब ऋजुमूत्रनयसे प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग तथा स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धका कारण कषाय है तो फिर शेष क्या बचता है जिसका कारण माननेके लिए मिध्यात्वको स्वीकार किया जाय ? समाधान यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति में कारण दो प्रकारके होते हैं - एक सामान्य ( व्यापक) कारण और दूसरा विशेष (व्याप्य कारण प्रकृतमें नैगमादि तीन नयोंसे बन्धके जितने भी कारण कहे गये हैं वे सब सामान्य कारण हैं तथा ऋजुसूत्रनयसे जो कारण कहे गये हैं वे विशेष कारण हैं । जैसे हमारे आपके चलनेमें पृथ्वी सामान्य कारण हैं, वह न हो तो हम एक डग भी नहीं चल सकते । तथा विहायोगति नामकर्मका उदय आदि विशेष कारण हैं । पृथिवीपर हम भी चलते हैं, आप भी चलते हैं, ऊंट भी चलता है और सर्प आदि भी चलते हैं सो यहाँ प्रत्येककी चालमें जो अन्तर पड़ता है उसका कारण अलग-अलग होकर भी पृथ्वी सबके चलनेके लिए सब अवस्थाओं कारण है वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिए। मिध्यात्वमें बंधनेवाली सभी प्रकृतियोंके चारों प्रकारके बंधका सामान्य कारण मिथ्यात्व होकर भी बन्धमें जो तारतम्य दिखाई देता है उसका कारण विवक्षित योग और कषाय हैं ऐसा यहां समझना चाहिए। कहा गया है कि जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान प्रदेश बन्धस्थानविशेष अधिक है। सो इसका अर्थ है कि प्रदेशबन्ध में फरक पड़ता है, उसका कारण प्रकृति भेद ही (१२) प्रदेशबन्ध प्रसंगसे आगममें जो यह हैं। इतनी विशेषता है कि प्रकृतिविशेषकी अपेक्षा वे भले ही योग वही रहे पर प्रकृति भेदके कारण जो है। क्योंकि एक कालमें विवक्षित योगसे जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उन सब प्रकृतियोंमें मिलनेवाले प्रदेश सबको समान नहीं मिलते हैं। इसका कारण वह योग न होकर कथंचित् प्रकृतिभेद ही इसका कारण रहता है। फिर भी यदि कोई यह माने कि यहाँ प्रकृति भेदसे उन प्रकृतियोंके प्रदेशबन्ध में योग अकिंचित्कर है, प्रकृतिभेद ही उसका कारण है तो जैसे उसका यह मानना मिथ्या है वैसे ही बन्धमें मिथ्यात्वको अकिंचित्कर मानना भी मिथ्या ही है । (१३) इस प्रकार नयभेदसे मिथ्यात्व आदि पाँचों ही बन्धके कारण हैं ऐसा यहाँ वेदनाखण्ड प्रत्यय अनुयोगद्वारके अनुसार समझना चाहिए। आचार्य गृद्धपिच्छने भी इसी बातको ध्यान में रखकर ही तत्त्वार्थसूत्रके वें अध्यायमें प्रारम्भके दो सूत्रोंकी रचना की है। वहाँ प्रथम सूत्र नगमादि तीन नयोंको अपेक्षा रचा गया है और दूसरे सूत्रको रचना ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा की गई है। मात्र उत्तरकालीन आचार्योंने नयविवक्षाको गौणकर आगमकी संकलना की है इसलिये मादृशः जनोंको नयज्ञान न होनेसे ऐसो विडम्बनाकी स्थिति बन जाती है। युक्तियुक्त नहीं है । अतः आगमके सर्वांग कथनको स्वीकार करना ही मोक्षमार्ग में प्रयोजनीय माना गया है। ऐसा मानकर ही मुनि या धावकको अपने श्रद्धानको आगमानुकूल बना कर दृढ़ करना चाहिये । आत्मानुशासन में भवन्त गुणभवने सम्यग्दर्शनके जो दस भेद किये हैं सो उन भेदों के करनेमें मिथ्यात्व आदि कर्मोंके उपशमादिकी विवक्षा न होकर ज्ञानावरण कर्मके क्षय क्षयोपशम आदिकी विशेषता स्पष्टतः परिलक्षित होती है । मात्र जो औपशमिक आदि तीन भेद किये गये हैं उनके होनेमें अवश्य ही मिथ्यात्व आदि कर्मोंका उपशम, क्षय, क्षयोपशम मुख्य हैं । उनमें प्रथम औपशमिक सम्यर्शन है । अनादि मिध्यादृष्टि जीवके सबसे १. याणि चैव योगट्ठाणाणि ताणि चैव पदेसबंधट्ठाणाणि । णवरि पदेसंबंधट्ठाणाणि पगदिविसेसेण विसेसाथियाणि । म० वं भा० ६ पृ० १०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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