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________________ चतुर्थ खण्ड : २६९ एकस्थान जीवप्रमाणानगम--एक-एक अनुभाग बन्धाध्यवसान स्थानमें अनन्त जीव पाये जाते हैं यह बतलाया गया है। यहाँ यह विचार सब सकषाय जीवोंकी अपेक्षा किया जा रहा है, केवल त्रस जीवोंकी अपेक्षा नहीं, इतना विशेष समझना चाहिए । निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम-इसमें सब अनुभाग बन्धाध्वसान स्थान जीवोंसे विरहित नहीं हैं यह बतलाया गया है। सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम-इसमें ऐसा कोई अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान नहीं है जो जीवोंसे विरहित हो यह बतलाया गया है । नानाजीवकालानुगम-एक-एक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानमें नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह बतलाया गया है। वृद्धिप्ररूपणा-इसमें अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किस अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानमें कितने जीव होते हैं यह ऊहापोह किया गया है । यवमध्यप्ररूपणा-इसमें सब अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है तथा यवमध्यके नीचे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान थोड़े होते है और उसके ऊपर असंख्यातगुणे होते हैं यह बतलाया गया है। स्पर्शप्ररूपणा-इसमें किस अपेक्षासे कितना स्पर्शनकाल होता है इसका विचार किया गया है । अल्पबहुत्वप्ररूपणा-इसमें किसमें कितने जीव पाये जाते हैं इसका ऊहापोह किया गया है । उत्तर प्रकृति अनुभागबन्धके प्रसंगसे अध्यवसान समुदाहारका विचार करते हुए ये तीन अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार, और तीव्र मन्दता। इनमेंसे प्रकृतिसमुदाहारके एक अवान्तर भेद प्रमाणानुगके अनुसार सब प्रकृतियोंके अनुभागबन्धाध्यवसान असंख्यात लोक प्रमाण बतलाकर यह विशेष निर्देश किया गया है कि अपगतवेद मार्गणा और सूक्ष्म साम्पराय संयतमार्गणामें एक-एक ही परिणाम स्थान होता है । इसका कारण यह है कि नौंवा गुणस्थान अनिवृत्तिकरण है। उसके प्रत्येक समयमें अन्यअन्य एक ही परिणाम होता है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें भी प्रत्येक समयमें अन्य-अन्य एक ही परिणाम होता है, दोनों गुणस्थानोंमें जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशु द्धिको लिये हुए होता है। यही कारण है कि उक्त दोनों मार्गणाओंमें वहाँ बन्ध योग्य प्रकृतियोंका एक-एक परिणामस्थान स्वीकार किया गया है। आगे पूर्वोक्त तीनों अनुयोगद्वारोंको निबद्ध कर अनुभाग बन्ध अर्थाधिकार समाप्त किया गया है। ४. प्रदेशबन्ध कार्मण वर्गणाओंका योगके निमित्तसे कर्मभावको प्राप्त होकर जीव प्रदेशोंमें एकक्षेत्रावगाह होकर अवस्थित रहनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस विधिसे जो कर्भपुञ्ज जीव प्रदेशमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे अवस्थित होता है वह सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण और अभव्योंसे अनन्त गुणा होता है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त होने वाले कर्मपुञ्जकी समयबद्ध संज्ञा है। मल प्रकृति प्रदेशबन्ध और उत्तर प्रकृति प्रदेशबन्धके भेदसे वह दो प्रकारका है। अब किस कर्मको किस हिसाबसे कमपुंज मिलता है इसका सकारण निर्देश करते हैं । जब आठों कर्मोका बन्ध होता है तब आयु कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होनेके कारण उसके हिस्सेमें सबसे कम कर्मपुंज आता है । वेदनीयको छोड़कर शेष कर्मोको अपने-अपने स्थिति बन्धके अनुसार कर्मपञ्ज बटवारेमें आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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