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________________ २६८ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ उत्पन्न होता है। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्ग में जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं उससे दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इस प्रकार अभव्यों अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवे भागप्रमाण स्पर्धकों का एक स्थान होता है। स्थानप्ररूपणा एक समयमें एक जीवमें जो कर्मका अनुभाग दृष्टिगोचर होता है उसकी स्थानसंज्ञा है । नानाजीवोंकी अपेक्षा ये अनुभाग बन्धस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । अन्तरप्ररूपणा - पूर्व में जो अनुभागवन्ध स्थान बतलाये हैं उनमेंसे एक अनुभागबन्धस्थानसे दूसरे अनुभागबन्धस्थानमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर पाया जाता है। उपरितन स्थानमेंसे अवस्तन स्थानको पटाकर जो लब्ध आवे उसमें एक कम करने पर उक्त अन्तर प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है | काण्डकप्ररूणा -- अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक, असंख्यात भाग वृद्धिकाण्डक, संख्या भाग वृद्धिकाण्डक, संख्यातगुणवृद्धिकाण्ड" असंख्यातगुणवृद्धिकाण्डक और अनन्तगुणवृद्धिकाण्डक इस प्रकार इन छहके आधारसे इसमें वृद्धिका विचार किया गया है । ओजयुग्मप्ररूपणा इस द्वारा वर्ग, स्थान और काण्डक वे कृतयुग्मरूप है या बादर युग्मरूप है, या कनि (?) ओजरूप है, तेजोजरूप है इसका ऊहापोह करते हुए अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान और काण्डको कृतयुग्मरूप है यह बतलाया गया है। -- षट्स्थानप्ररूपणा - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात्भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात - गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि यह छह वृद्धियाँ है इनका प्रमाण कितना है यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है। अधस्तन स्थानप्ररूपणा कितनी बार अनन्तभाग वृद्धि होनेपर एक बार असंख्यातभाग वृद्धि होती है इत्यादि विचार इस प्ररूपणा में किया गया है। समय प्ररूपणा - जितने भी अनुभाग बन्धस्थान हैं उनमेंसे कौन अनुभाग बन्धस्थान कितने काल तक बन्धको प्राप्त होता है इसका ऊहापोह इस प्ररूपणा में किया गया है । वृद्धिप्ररूपणा - पड़गुणी हानि-वृद्धि और तत्सम्बन्धी कालका विचार इस प्ररूपणा में किया गया है । यवमध्यप्ररूपणा --- यवमध्य दो प्रकारका है-जीव यवमध्य और काल यवमध्य । यहाँ काल यवमध्य विवक्षित है । यद्यपि समयप्ररूपणा के द्वारा ही यवमध्यकी सिद्धि हो जाती है फिर भी किस वृद्धि या हानि मध्यका प्रारम्भ और समाप्ति होती है इस तथ्यका निर्देश करनेके लिए यवमध्यप्ररूपणा पृथक्से की गई है। पर्यवसान प्ररूपणा - सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागस्थान से लेकर समस्त स्थानोंमें अनन्त गुणके ऊपर अनन्तगुणा होना यह इस प्ररूपणा में बतलाया गया है । अल्पबहुत्वप्र रूपणा- इसमें अनन्तरोपनिषा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर अनन्तगुण वृद्धिस्थान और असंख्यात गुणवृद्धिस्थान आदि कौन कितने होते हैं इसका ऊहापोह किया गया है । इस प्रकार उक्त बारह अधिकारों द्वारा अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानोंका ऊहापोह करनेके बाद जीव समुदाहार सम्बन्धी आठ अनुयोग द्वारोंका ऊहापोह किया गया है । वे आठ अनुयोगद्वार इस प्रकार हैं-- एकस्थान जीव प्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, नाना जीव कालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, और अल्पबहुत्व प्ररूपणा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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