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________________ २७० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ दर्शनावरण और अन्तराय कर्ममेंसे प्रत्येकको उससे विशेष उससे विशेष कर्मपुंज प्राप्त होता है । तथा वेदनीय कर्मके करनेमें समर्थ होते हैं, इसलिए वेदनीय कर्मको सबसे अधिक कर्मपुंज प्राप्त होता है । इसलिए नाम कर्म और गोत्र कर्म मेंसे प्रत्येकको उससे विशेष अधिक कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है। ज्ञानावरण, अधिक कर्मपुंज प्राप्त होता है । मोहनीय कर्मको निमित्तसे सभी कर्म जीवोंमें सुख-दुःखको उत्पन्न जब आयु कर्म को छोड़कर सात कर्मोंका बन्ध होता है तब सात कर्मोंमें और जब आयु तथा मोहनीय कर्मको छोड़कर यथास्थान छह कर्मोका बन्ध होता है तब छह कर्मोंमें उक्त विविसे प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त हुए कर्मपुञ्जका बटवारा होता है । यह प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त हुए समय प्रबद्ध मेंसे किस कर्मको कितना द्रव्य मिलता है इसका विचार है । उत्तर प्रकृतियोंमेंसे जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनमें अपनीअपनी मूल प्रकृतियों को मिले हुए द्रव्यके अनुसार बटवारा होता रहता है । वंदनीय, आयु और गोत्र कर्मकी यथासम्भव एक समयमें एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है, इसलिए जब जिस प्रकृतिका बन्ध हो तब उक्त कर्मोंका पूरा द्रव्य उसी प्रकृतिको मिलता है। शेष कर्मोंका आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए। तथा आयु कर्मके बन्धके विषयमें भी आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए । इस अर्थाधिकारके वे सब अनुयोगद्वार हैं जो प्रकृतिबन्ध आदि अर्थाधिकारोंमें निबद्ध कर आये हैं । मात्र प्रथम अनुयोगद्वारका स्थानप्ररूपणा है, इसके दो उप अनुयोगद्वार हैं - योगस्थान प्ररूपणा और प्रदेशबन्ध प्ररूपणा । योगस्थानप्ररूपणा - मन, वचन और कायके निमित्तसे होनेवाले जीव प्रदेशोंके परिस्पन्दको योग कहते हैं | योग शरीर नामकर्मके उदयसे होता है । इसलिये यह औदयिक है । परमागममें इसे क्षायोपशमिक कहनेका कारण यह है कि उक्त कर्मोंके उदयसे शरीर नामकर्मके योग्य पुद्गल पुञ्जके सञ्चयको प्राप्त होनेपर वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे वृद्धिको और हानिको प्राप्त हुए वीर्यके निमित्त रे जीव प्रदेशोंका संकोच -विकोच, वृद्धि और हानिको प्राप्त होता है, इसलिए उसे परमागममें क्षायोपशमिक कहा गया है । परन्तु है वह औदायिक ही । यद्यपि वीर्यान्तराय कर्मका क्षय होनेसे अरहंतोंके क्षायोपशमिक वीर्य नहीं पाया जाता यह यथार्थ है । परन्तु जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि योग औदयिक ही है, क्षायोपशमिक नहीं, क्षायोपशमिकपनेका तो उसमें उपचार किया गया है, इसलिए अरहन्तोंका वीर्य क्षायिक होनेपर भी उक्त लक्षणके स्वीकार करनेमें कोई दोष नहीं प्राप्त होता और इसीलिए अयोग केवलियों और सिद्धोंमें अतिप्रसंग भी नहीं प्राप्त होता । अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि सब संसारी जीवोंके सब प्रदेश व्याधि और भय आदिके निमित्तसे सदा काल चलायमान ही होते रहते हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है । ऐसे समय में कुछ प्रदेश चलायमान भी होते हैं और कुछ प्रदेश चलायमान नहीं भी होते । उनमें से जो प्रदेश चलायमान न होकर स्थित रहते हैं उनमें योगका अभाव होनेसे कर्मबन्ध नहीं होगा । उस समय जो प्रदेश स्थित रहते हैं होनेसे योग नहीं बन सकेगा यह स्पष्ट ही है । यदि परिस्पन्दके तो आयोग केवलियों और सिद्धों के भी योगका सद्भाव स्वीकार है कि मन, वचन और कायकी क्रियाकी उत्पत्ति के लिए जो जीवका उपयोग होता है उसे योग कहते हैं और वह कर्मबन्धका कारण है । यह उपयोग कुछ जीव प्रदेशों में हो और कुछमें न हो यह तो बनता नहीं, क्योंकि एक जीवमें उपयोग की अखण्डरूपसे प्रवृत्ति होती है । और इस प्रकार सब जीव प्रदेशोंमें योगका सद्भाव बन जानेसे कर्मबन्ध भी सब जीवप्रदेशों में बन जाता है । यदि कहा जाय कि योगके निमित्तसे सब जीव प्रदेशों में उनमें परिस्पन्द नहीं बिना उनमें भी योग स्वीकार किया जाता है करनेका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । समाधान यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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