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________________ चतुर्थखण्ड : २६७ वर्ण चतुष्क प्रशस्त औव अप्रशस्त दोनों प्रकारके होते हैं, इसलिए उन्हें दोनोंमें सम्मिलित किया गया है । सरल होनेसे यहाँ उनके नामोंका निर्देश नहीं किया गया है । इस व्यवस्था के अनुसार उक्त ४२ प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य उत्कट विशुद्धि कालमें होता है और ८२ अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अपने-अपने योग्य उत्कट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिके होता है । किन्तु जवन्य अनुभागबन्धके लिए इससे विपरीत समझना चाहिए । अर्थात् प्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य संक्लेश के प्राप्त होने पर होता है और अप्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध यथास्थान अपने-अपने योग्य विशुद्धिके प्राप्त होनेपर होता है । यहाँ प्रथम इस बातका उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अपयश : कीर्ति इन चार युगलोंके अघन्य अनुभागबन्धके स्वामी क्रमसे चारों गतिके परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिको बतलाया गया है । जबकी गोम्मटसार कर्मकाण्ड में परिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीवोंके स्थान में अपरिवर्तमान मध्यम परिणामवाले जीव लिये गये हैं । वेदनाखण्ड में जो अनुभाग बन्धके अल्पबहुत्वको सूचित करनेवाला ६४ पदवाला अल्पबहुत्व आया है उसमें मध्यम परिणामवाला इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा उल्लेख नहीं किया है । किन्तु वहाँ अयश कीर्ति सर्वविशुद्ध यश कीर्तिका अति तीव्र संक्लिष्ट और सातावेदनीयका सर्वविशुद्ध जीव जघन्य अनुभागबन्ध करता है ऐसा बतलाया । इतना ही नहीं, किन्तु आगे चलकर त्रसादि दश युगलके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामीको सातासातावेदनीय के समान जाननेकी सूचना की है, जबकि महाबन्धमें इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी मध्यम परिणामवाला ही लिया गया है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में विषयमें अनियम देखा जाता है । प्रति समय उत्तरोत्तर वर्धमान या हीयमान जो संक्लेश या विशुद्धिरूप परिणाम होते हैं वे अपरिवर्तमान कहलाते हैं तथा जिन परिणामोंमें स्थित यह जीव परिणामान्तरको प्राप्त होकर एक, दो आदि समयों द्वारा पुनः उन्हीं परिणामोंको प्राप्त करता है उसके वे परिणाम परिवर्तमान परिणाम कहलाते हैं । इस दृष्टिसे उक्त पूरा प्रकरण विचारणीय है । यह संक्षेपमें मूल व उत्तर प्रकृतियोंको अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वकी मीमांसा है । विस्तार भयसे अन्य अनुयोगद्वारों व भुजगार आदि अर्थाधिकारोंका ऊहापोह यहाँ नहीं किया गया है । अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान प्ररूपणा वे एक-एक स्थितिजिन परिणामोंसे अनुभा गबन्ध होता है उन्हें अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान कहते हैं । बन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रति असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं । किन्तु यहाँ पर कारणमें कार्यका उपचार करके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानोंसे अनुभाग स्थान लिये गये हैं । प्रकृतमें १२ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं --अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा स्थानप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओजयुग्मप्ररूणा, षट्स्थानप्ररूणा, अधस्तन स्थानप्ररूपणा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पलबहुत्वप्ररूपणा । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा -- एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अवस्थित अनुभाग है उसकी अविभागप्रतिच्छेदसंज्ञा है । इस दृष्टिसे विचार करने पर एक कर्मप्रदेश में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । उनकी वर्ग संज्ञा है । ऐसे सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जितने कर्मप्रदेश उपलब्ध होते हैं उनकी वर्गणा संज्ञा है । इससे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जितने कर्मप्रदेश पाये जाते हैं उनसे दूसरी वर्गणा बनती है । प्रत्येक वर्गण में अभत्रयोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण वर्ग पाये जाते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि हुए, अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धांके अनन्तवे भागप्रमाण वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं । उन सब वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं । इसी विधि से दूसरा स्पर्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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