SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ अनादि, ध्रुव और अध्रुव इन अनुयोग द्वारोंकी प्ररूपणाका बहुभाग भी उपलब्ध नहीं है । किन्तु इनके जो नाम हैं उनके अनुरूप ही उनमें विषय निबद्ध किया गया है। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। २. स्वामित्व अनुयोगद्वार इस अनुयोग द्वारके अन्तर्गत ज्ञानावरणादि कर्मोंके जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग बन्धके स्वामित्वका विचार करनेके पूर्व विशेष स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्त-अप्रशस्त प्ररूपणा इन तीन अनुयोग द्वारोंको निबद्ध किया गया है। प्रत्ययानुगम-प्रत्ययका अर्थ निमित्त, हेतु, साधन और कारण है । जीवों के किन परिणामोंको निमित्त कर इन ज्ञानावरणादि मूल व उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होता है इस विषयको इस अनुयोग द्वारमें निबद्ध किया गया है। वे परिणाम चार प्रकार के है--मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । परमार्थस्वरूप देव, गुरु, शास्त्र और पदार्थों में अययार्थ रुचिको मिथ्यात्व कहते हैं । निदानका अन्तर्भाव मिथ्यात्वमें ही होता है। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मसेवन, परिग्रहका स्वीकार , मधु-मांस-पांच उदम्बर फलका सेवन, अभक्ष्यभक्षण फूलोंका भक्षण, मद्यपान तथा भोजनवेलाके अतिरिक्त काल में भोजन करना अविरति है । असंयम इसका दूसरा नाम है। क्रोध, मान, माया और लोभ तथा राग और द्वेष ये सब कषाय है। तथा जीवोंके प्रदेश परिस्पंदका नाम योग है । इनमेंसे मिथ्यात्व अविरति और कषाय ये ज्ञानावरणादि छह कर्मोके बन्धके हेतु है तथा उक्त तीन और योग ये चारों वेदनीय कर्मके बन्धके हेतु है। यहाँ प्रारम्भके छह कर्मोके बन्ध--हेतुओंमें योगको परिगणित न करनेका यह कारण है कि ग्यारवें आदि गुणस्थानोंमें योगका सद्भाव रहने पर भी उक्त कर्मोका बन्ध नहीं होता। वैसे ऋजुसत्र नयकी अपेक्षा सामान्य नियम यह है कि आठों कर्मोका प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होता है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है। पर उस नियमकी यहाँ विवक्षा नहीं है । यहाँ जिस कर्मके साथ जिसकी कालिक अन्वय-व्यतिरेक रूप बाह्य व्याप्ति है उसके साथ उसका कार्यकारणभाव स्वीकार किया गया है। योगके साथ ऐसी व्याप्ति नहीं बनती, क्योंकि ग्यारवें आदि तीन गुणस्थानोंमें योगके रहने पर भी ज्ञानावरणादि छह कर्मोका बन्ध नहीं होता, इसलिए इन छह कर्मोके बन्धके हेतु मिथ्यात्व, अविरति और कषायको कहा है। यहाँ आयु कर्मके बन्धके हेतु जीवके कौन परिणाम हैं इसका उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । आगे उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणामें नरकायुको मिथ्यात्व प्रत्यय तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायुको मिथ्यात्व प्रत्यय और असंयम प्रत्यय तथा देवायुको मिथ्यात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय बतलाया है। इससे विदित होता है कि आयु कर्मका बन्ध मिथ्थात्व प्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय होना चाहिए। अपनी-अपनी बन्ध व्यच्छितिको ध्यानमें रखकर उत्तर प्रकृतियोंके बन्ध प्रत्ययोंका विचार इसी विधिसे कर लेना चाहिए। विपाक देश-छह कर्म जीवविपाकी हैं. आयुकर्म भवविपाकी है तथा नामकर्म जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी है। यहाँ जो कर्म जीवविपाकी हैं उनसे जीवकी नोआगम भावरूप विविध अवस्थाएँ उत्पन्न होती हैं ओर नाम कर्मकी जो प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी है उनसे जीवके प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाही शरीरादिकी रचना होती है । पुद्गल-विपाकी कर्मोके उदयसे जीवके नोआगमभावरूप अवस्था नहीं उत्पन्न होती। लेश्या कर्मका कार्य है और धनादिका संयोग लेश्याका कार्य है, अर्थात् व्यक्त या अव्यक्त जैसा कषायांश और यो (मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति) होता है उसके अनुसार धनादिका संयोग होता है। इस विवक्षाको ध्यानमें रख कर ही धनादिककी प्राप्तिको कर्मका कार्य कहा जाता है। प्रशस्त-अप्रशस्तप्ररूपणा-चारों धातिकर्म अप्रशस्त हैं तथा शेष चारों अघाति कम प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकारके है। उत्तर भेदोंकी अपेक्षा प्रशस्त कर्म प्रकृतियाँ ४२ है और अप्रशस्त कर्म प्रकृतियाँ ८२ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy