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________________ २५६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इपके स्थानमें महाबंधमें इस स्थलपर पाठ हैअयणं संवच्छर-पलिदोवम-सागरोवमादओ भवंति । इसी प्रकार प्रकृति अनुयोग द्वारके अवधिज्ञान सम्बन्धी जो सत्र गाथाएँ निबद्ध हैं वे सब यद्यपि महाबन्धके प्रकृति समुत्कीर्तन में भी निबद्ध हैं, पर उनमें पाठभेदके साथ व्यतिक्रप भी देखा जाता है। उदाहरणार्थ प्रकृति अनुयोग द्वारमें 'काले चउण्ण उड्ढी' यह सूत्र गाथा पहले है और 'तेजाक म्म सरीरं' यह सुत्र गाथा बाद में । किन्तु महाबन्धमें 'तेजाकम्म सरीरं' सूत्र गाथा पहले है और काले चदुण्हं वुड्ढी' यह सूत्र गाथा बाद में। इसी प्रकार कतिपय अन्य सुत्र गाथाओंमें भी व्यतिक्रम पाया जाता है। आगे दर्शनावरणसे लेकर अन्तरायतक शेष सात कों की किसकी कितनी प्रकृतियाँ है मात्र इतना उल्लेख कर प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोग द्वार समाप्त किया गया है। इतना अवश्य है कि नाम कर्मकी बन्ध प्रकृतियोंकी ४२ संख्याका उल्लेख कर उसके बाद यह वचन आया है। 'यं तं गदिणामं कम्मं तं चविषं-णिरयगदि याव देवगदि त्ति । यथा पगदिभंगो तथा कादव्वो।' इसमें आये हुए 'पगदिभंगो कादवो' पदसे विदित होता है कि सम्भव है इस पदद्वारा वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनयोगद्वारके अनुसार जाननेकी सूचना की गई है। समस्त कर्म विषयक वाङ्मयमें ज्ञानावरणादि कर्मोका जो पाठ विषयक क्रम स्वीकार किया गया है उसके अनुसार ज्ञानकी प्रधानताको लक्ष्यमें रखकर ज्ञानावरण कर्मको सर्वप्रथम रखकर तदनन्तर दर्शनावरण कर्मको रखा है-यतः दर्शनपूर्वक तत्वार्थोका ज्ञान होनेपर ही उनका श्रद्धान किया जाता है, अतः दर्शनावरणके बाद मोहनीय कर्मका पाठ स्वीकार किया है। अन्तराय यद्यपि घातिकर्म है, पर वह नामादि तीन कोके निमित्तसे ही जीवके भोगादि गुणोंके घातने में समर्थ होता है इसलिए उसका पाठ अघाति कोंके अन्तमें स्वीकार किया है । आयु भवमें अवस्थितिका निमित्त है. इसलिए नाम कर्मका पाठ आयुकर्मके बाद रखा है तथा भवके होनेपर ही जीवका नीच-उच्चपना होना सम्भव है, इसलिए गोत्र कर्मका पाठ नाम कर्मके बाद स्वीकार किया है । यद्यपि वेदनीय अघातिकर्म है पर वह मोहके बलसे ही सुखदुःखका वेदन करनेमें समर्थ है, अन्यथा नहीं, इसलिए मोहनीय कर्मके पूर्व घातिकर्मके मध्य उसका पाठ स्वीकार किया है। यह आठों कोंके पाठक्रमको स्वीकार करने विषयक उक्त कथन गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे किया है। बहुत सम्भव है कि इस पाठकर्मका निर्देश स्वयं प्रातःस्मरणीय आचार्य भूतबलीने प्रकृत अर्थाधिकारके प्रारम्भमें किया होगा। पर उसके प्रथथ ताडपत्रके त्रुटित हो जाने के कारण ही हमने गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे यह स्पष्टीकरण यह तो सुनिश्चित है कि २३ प्रकारकी पुद्गल वर्गणाओंमेसे सत्स्वरूप सभी वर्गणाओंसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका निर्माण नहीं होता। किन्तु उनमेंसे मात्र कामण वर्गणाएँ ही ज्ञानावरणादि कर्म भावको प्राप्त होती हैं । उसमें भी अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही वे वर्गणाएँ मिथ्यादर्शनादि बाह्य हेतुको प्राप्त कर कर्मभावको प्राप्त होती हैं, सभी नहीं। जिस प्रकार यह नियम है उसी प्रकार उपादान भावको प्राप्त हुई सभी कार्मणवर्गणाएँ ज्ञानावरणादि रूपसे कर्मभावको प्राप्त नहीं होती। किन्तु जैसे गेहूँरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते है और चनेरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते हैं यह सामान्य नियम है वैसे ही ज्ञानावरणरूप परिणमन करनेवाली कामण वर्गणाएँ जुदी है और दशनावरणादिरूप परिणमन करनेवाली कार्मणवर्गणाएँ अलग है । इन ज्ञानावरणादि कर्मोंका अपनी-अपनी जातिको छोड़कर अन्य कर्म रूप संक्रमित नहीं होनेका यही कारण है। तथा इसी आधारपर दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीयका परस्पर संक्रमण नहीं होता यह स्वीकार किया गया है । चारों आयुओंका भी परस्पर संक्रमण नहीं होता, बहुत सम्भव है इसका भी यही कारण हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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