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________________ २. सर्वबन्ध- नोसर्वंबन्ध अनुयोगद्वार यह प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारका सामान्य अवलोकन है । आगे जितने भी अनुयोगद्वार आये हैं उनद्वारा इसी प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारको आलम्बन बनाकर विशेष ऊहापोह किया गया है। उनके नाम पहले ही दे आये हैं । जिस अनुयोग द्वारका जो नाम है उसमें अपने नामानुरूप ही विषय निबद्ध किया गया है । यथा सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध इन दो अनुयोग द्वारोंको लें । इनमें यह बतलाया गया है कि ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मका बन्ध व्युच्छित्ति होने तक सर्वबन्ध होता है, क्योंकि इन दोनों कर्मोंकी जो पाँच-पाँच प्रकृतियाँ हैं उनका अपने बन्ध होनेके स्थल तक सतत बन्ध होता रहता है । दर्शनावरण कर्मका सर्व बन्ध भी होता है और नोसर्वबन्ध भी होता है । सासादन गुणस्थान तक इसकी सभी प्रकृतियोंका बन्ध होनेसे सर्वबन्ध होता है, आगेके गुणस्थानोंमें नोसर्वबन्ध होता है, क्योंकि दूसरे गुणस्थानके अन्तमें स्त्यानarat बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । और अपूर्वकरणके प्रथम भाग में निद्रा और प्रचलाकी बन्ध व्युच्छित्ति होती है । इसी प्रकार मोहनीय और नामकर्मके विषयमें भी जानना चाहिए। इन दो कर्मोंमें सर्वबन्धसे तात्पर्य जो प्रकृतियाँ अधिक से अधिक युगपत् बँध सकती हैं उनकी विवक्षासे है । तथा उनसे कर्मका बन्ध जब होता तब वह नोसर्वबन्ध कहलाता है । वेदनीय, आयु, गोत्र इन तीन कर्मोका नोसर्वबन्ध ही होता है, क्योंकि इन कर्मोंकी एक कालमें अपनी-अपनी विवक्षित एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है । यह उक्त दो अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण है । इसी प्रकार अन्य अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण समझना चाहिए । इस अल्प निबन्ध में समग्र विवेचन सम्भव नहीं है । दिशा मात्रका ज्ञान कराया गया है । इतना अवश्य है कि महाबन्धमें जो बन्धस्वामित्वविचय अनुयोगद्वार निबद्ध है उसीके अनुसार बन्धस्वामित्वविचय तीसरे खण्डकी रचना हुई है । दोनोंका विषय एक है, और शैली भी एक है । मात्र अन्तर इतना है कि बन्धस्वामित्वविचयमें ओघके समान प्रत्येक मार्गणा और उसके अवान्तर भेदोंमें किन प्रकृतियोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है इसको प्रकृतियोंके नामनिर्देशपूर्वक निबद्ध किया गया है, जब कि महाबन्धके बन्ध स्वामित्व विचयमें जिस मार्गणास्थानके विषयकी पहले कहे गये जिस ओघ या मार्गणास्थानके विषयके साथ समानता है उसका 'एव' के साथ उस मार्गणास्थानका निर्देश करके संक्षेपीकरण कर दिया गया है । यथा - एवं ओघ मंगो पंचिदिय --तस० २ मनसि । इतना अवश्य है कि महाबन्धमें इस अनुयोगद्वारका बहुत कुछ भाग और एक जीवकी अपेक्षा काल अनुयोगद्वारका प्रारम्भका कुछ भाग इस विषय सम्बन्धी ताडपत्रके नष्ट 'जाने से त्रुटित हो गया है । जिसकी पूर्तिबन्धस्वामित्व विषय, वगणाखण्ड तथा अन्य उपयोगी सामग्री के आधारसे की जा सकती । पहले जिस एक ताडपत्रके नष्ट होनेका निर्देश कर आये हैं उसकी भी यथासम्भव वर्गणाखण्ड के प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वार आदिसे पूर्ति की जा सकती है । चतुर्थखण्ड : २५७ २. स्थितिबन्ध अवस्थान कालको स्थिति कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर उनका जितने काल तक अवस्थान रहता है उसे स्थितिबन्ध कहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह मूल प्रकृति स्थितिबन्ध और उत्तर प्रकृति स्थितिबन्धके भेदसे दो प्रकारका है। उन्हीं दोनों स्थितिबन्धों का इस अर्थाधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूल प्रकृति स्थितिबन्धके प्रसंगसे ये चार अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं— स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधाकाण्ड प्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इन चारों अनुयोगद्वारोंको वेदना खण्डके वेदना काल विधानमें जिस विधिसे निबद्ध किया है वही विधि यहाँ अपनाई गई है । दोनों स्थलोंपर सूत्र रचना सदृश है। मात्र महाबन्धमें परम्परोपनिधाके प्रसंगसे बहुत स्थल त्रुटित हो गया ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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