SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थखण्ड : २५५ किन्तु कार्मण वर्गणात्रोंके, मिध्यादर्शन आदिके निमित्तसे कर्म भावको प्राप्त होने पर वे कर्म जीवसे सम्बद्ध होकर रहते हैं या असम्बद्ध होकर रहते हैं इसीके उत्तर स्वरूप यहाँ बन्ध-तत्वको स्वीकार किया गया है । परमागममें बन्ध दो प्रकारका बतलाया है- एक तादात्म्य सम्बन्ध रूप और दूसरा संयोग सम्बन्धरूप | इनमेंसे प्रकृतमें तादात्म्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यका अपने गुण पर्यायके साथ ही तादात्म्यरूप बन्ध होता है, दा द्रव्यों या उनके गुण पर्यायोंके मध्य नहीं। संयोग सम्बन्ध अनेक प्रकारका होता है सो उसमें भी दो या दो से अधिक परमाणुओं आदिमें जैसा श्लेष बन्ध होता है वह भी यहाँ विवक्षित नहीं है, क्योंकि पुल पवान द्रव्य होने पर भी जीव स्पर्शादि गुणोंसे रहित अमूर्त द्रव्य है, अतः जीव और पुद्गलका श्लेष बन्ध बन नहीं सकता । स्वर्णका कीचड़के मध्य रह कर दोनोंका जैसा संयोग सम्बन्ध होता है ऐसा भी यहाँ जीव और कर्मका संयोग सम्बन्ध नहीं बनता, क्योंकि स्वर्णके कीचड़के मध्य होते हुए भी स्वर्ण कीचड़से अलिप्त रहता है, क्योंकि कीचड़के निमित्तसे स्वर्ण में किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता । मात्र परस्पर अवगाहरूप संयोगसम्बन्ध भी जीव और कर्मका नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि जीव प्रदेशोंका विस्रसोपचयों के साथ परस्पर अवगाह होने पर भी विस्रसोपचयोंके निमित्त से जीव में नरकादिरूप व्यञ्जन पर्याय और मिथ्यादर्शनादि भावरूप किसी प्रकारका परिणाम नहीं होता तब यहां किस प्रकारका बन्ध स्वीकार किया गया है ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान यह है कि जीव के मिथ्यादर्शनादि भावोंको निमित्त कर जीव प्रदेशोंमें अवगाहन कर स्थित वियोपचयोंके कर्म भावको प्राप्त होने पर उनका और जीव प्रदेशोंका परस्पर अवगाहन कर अवस्थित होना यही जीवका कर्मके साथ बन्ध है । ऐसा बन्ध ही प्रकृतमें विवक्षित है । इस प्रकार जीवका कर्मके साथ बन्ध होने पर उसकी प्रकृतिके अनुसार उस बन्धको प्रकृति बन्ध कहते है। इसी प्रकृति बन्धको ओघ और आदेशसे महाबन्धके प्रथम अर्थाधिकारमें विविध अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर निबद्ध किया गया है । वे अनुयोग द्वार इस प्रकार हैं- ( १ ) प्रकृति समुत्कीर्तन (६) सर्वबन्ध (३) नोसर्वबन्ध (४) उत्कृष्टबन्ध (५) अनुष्टकृष्बन्ध (६) जघन्यबन्ध (७) अजघन्यवन्ध (८) सादिबन्ध ( ९ ) अनादिवन्ध (१०) भुवबन्ध (११) अध्रुवबन्ध ( १ ) बन्त्रस्वामित्वविचय (१३) एक जीवकी अपेक्षा काल (१४) एक जीवकी अपेक्षा अन्तर (१५) सन्निकर्ष (१६) भंगविषय (१७) भागाभागानुगम ( १८ ) परिमाणानुगम (१९) क्षेत्रानुगम ( २० ) स्पर्शनानुगम (२१) नाना जीवोंको अपेक्षा कालानुगम (२२) नाना जीयोंकी अपेक्षा अन्तरानुगम (२३) भावानुगम (२४) जीव अल्पबहुत्वानुगम और (२५) अद्धा अल्पबहुत्वानुगम | १. प्रकृति समुत्कीर्तन प्रथम अनुभाग द्वार प्रकृति समकीर्तन है। इसमें कर्मोकी आठों मूल और उत्तर प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। किन्तु महाबन्धके प्रथम सापत्र के मुटित हो जानेसे महाबन्धका प्रारम्भ किस प्रकार हुआ है इसका ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। इतना अवश्य है कि इस अनुयोग द्वारका अवशिष्ट जो भाग मुद्रित है. उसके अवलोकनसे ऐसा सुनिश्चित प्रतीत होता है कि वर्मणासण्डके प्रकृति अनुयोग द्वारमें ज्ञानावरणकी पाँच प्रकृतियोंका जिस विधिसे निरूपण उपलब्ध होता है महाबन्धमें भी ज्ञानावरणको पांच प्रकृतियोंके निरूपणमें कुछ पाठ भेदके साथ लगभग वही पद्धति अपनाई गई है। प्रकृति अनुयोग द्वारके ५९ वें सूत्रका अन्तिम भाग इस प्रकार है संवच्छर- जुग - पुव्व - पव्व -- पलिदोवम -- सागरोव मादओ विधओ भवंति ||१९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy