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________________ २५४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ है । ज्ञानावरणादिरूपसे स्वयं कार्मणवर्गणायें परिणमी, इसलिए नोआगम भावकी अपेक्षा तो वह कर्मरूप परिणाम स्वयं पुलका है। किन्तु उन कार्मणवर्गणाओंके परिणमनमें जीवके मिथ्यात्व आदि भाव निर्मित होते हैं, इसलिए निमित्त होनेकी अपेक्षा उसे उपचारसे जीवका भी कर्म कहा जाता है । इस प्रकार इन ज्ञानावरणादि कर्मोंको जीवका कहना यह नोआगम द्रव्यनिक्षेपका विषय है, नोआगम भाव निक्षेपका विषय नहीं, इसलिए आगममें इसे द्रव्य कर्मरूपसे स्वीकार किया गया है। काल प्रत्यासति या बाह्यव्याप्ति वश विवक्षित दो द्रव्यों में एकता स्थापित कर जब एक द्रव्यके कार्यको दूसरे द्रव्यका कहा जाता है तभी नोआगमनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल परिणामको जीवका कार्य कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार प्रकृतमें उपयोगी कुछ तथ्योंका निर्देश करनेके बाद अब महाबन्ध परमागममें निवद्ध विषयपर सांगोपांग विचार करते हैं। ५. महाबन्ध परमागम में निबद्ध विषय यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों विषयोंको ध्यानमें रखकर महाबन्धमें बन्ध तत्वको निवद किया गया है। यह प्रत्येक द्रव्यगत स्वभाव है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है । यतः ज्ञान-र्शन स्वभाववाला जीव स्वतंत्र द्रव्य है और प्रत्येक जीव द्रव्य पृथक् पृथक् सत्ता सम्पन्न होनेसे सब जीव अनन्त है तथा पर्यायदृष्टिसे वे संसारी और मुक्त ऐसे दो भागोंमें विभक्त हैं । जो चतुर्गतिके परिभ्रमण से छुटकारा पा गये हैं उन्हें मुक्त कहते हैं । किन्तु जो चतुर्गति परिभ्रमणसे मुक्त नहीं हुए हैं उन्हें संसारी कहते हैं । अब प्रश्न यह है कि जीवोंकी ये दो प्रकारकी अवस्थायें कैसे होती हैं ? यद्यपि इस प्रश्नका समाधान पूर्वोक्त इस कथनसे हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्य में बाह्य और अन्तरंग उपाधिकी समग्रता होती है फिर भी यहां उस वाह्य सामग्रीको सांगोपांग मीमांसा करनी है, आभ्यन्तर उपाधिके साथ जिसकी प्राप्ति होनेपर जीवोंकी संसार (चतुगंति परिभ्रमणरूप) अवस्था नियमसे होती है। भगवान् भूतबलीने इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप महाबन्ध परमागमको निवद्ध किया है। इसमें जीव सम्बद्ध उस बाह्य सामग्रीकी कर्म संज्ञा रख कर और उसे व्यवहारनय ( नैगमनय) से जीवका कार्य स्वीकार कर बतलाया गया है कि वे कर्म कितने प्रकारके हैं, उनकी प्रकृति, स्थिति और अनुभाग क्या है । संख्या में वे प्रदेशोंकी अपेक्षा कितने होते हैं । बन्धकी अपेक्षा ओघ और आदेशसे कौन जीव किन कमका बन्ध करते हैं । ये सब कर्म मूल और अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा कितने प्रकारके है। क्या सभी पुद्गल कर्मभावको प्राप्त होते हैं या नियत पुद्गल ही कर्मभावको प्राप्त होते हैं । उनका अवस्थान काल और क्षेत्र आदि कितना है, आदि प्रकृत विषय सम्बन्धी प्रश्नोंका समाधान विधि रूपसे महाबन्ध परमागम द्वारा किया गया है। इसमें सब कमोंके प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ऐसे चार भेद करके उक्त विधिसे बन्ध तत्त्वकी अपेक्षा सब कमका विचार किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। १. प्रकृति बन्ध प्रकृति बन्ध यह पद प्रकृति और बन्ध इन दो शब्दों से मिलकर बना है। प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द है। इससे ज्ञात होता है कि जीवके मिथ्यादर्शन आदिको निमित्त कर जो कार्मण वर्गायें कर्म भावको प्राप्त होती हैं उनकी मूल प्रकृति जीवकी विविध नर-नरकादि अवस्थाओंके होनेमें तथा मिथ्यादर्शनादि भावके होनेमें निमित्त होती हैं । अर्थात् जब जीव अपनी पुरुषार्थहीनता के कारण आभ्यन्तर उपाधिवश जिस अवस्थाको प्राप्त होता है उसकी उस अवस्थाके होनेमें ये ज्ञानावरणादि कर्म निमित्त (व्यवहार हेतु) होते हैं यह उनकी प्रकृति है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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