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________________ चतुर्थखण्ड : २५३ इस प्रकार उक्त पाँच खण्डों में निवद्ध विषयका सामान्य अवलोकन करनेपर विदित होता है कि उक्त पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक सामग्रीका भी यथासंभव अन्य सामग्री के साथ यथास्थान निबद्धीकरण हुआ है । फिर भी बन्धन अधिकारके बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और दग्धविधान इन चारों अर्थाधिकारोंको समग्र भावसे निबद्धीकरण नहीं हो सका है। अतः इन चारों अर्थाधिकारोंको अपने अवान्तर भेदोके साथ निवद्ध करनेके लिए छठवें खण्ड महाबन्धको निबद्ध किया गया है। वर्तमानमें जिस प्रकार प्रारम्भके पांच सण्डोंपर आचार्य वीरसेनकी धवला नामक टीका उपलब्ध होती है उस प्रकार महाबन्धपर कोई टीका उपलब्ध नहीं होती । इसका परिमाण अनुष्टुप् श्लोकोंमें चालीस हजार लोक प्रमाण स्वीकार किया गया है। आचार्य वीरसेनके निर्देशानुसार यह आचार्य भूतबलीकी अमर कृति है। यद्यपि इसका मूल आधार बन्धन नामक अर्थाधिकार है, परन्तु उसके आधारसे आचार्य भूतबलीने इसे निबद्ध किया है, इसीलिए यहाँ उसे उनकी अमर कृति कहा गया है । २ महाबन्ध इस नामकरणकी सार्थकता यह हम पहले ही बतला आये है कि षट्खण्डागम सिद्धान्त में दूसरे खण्डका नाम क्षुल्लक बन्ध है और तीसरे खण्डका नाम बन्धस्वामित्वविचय है। किन्तु उनमें वन्धन अर्थाधिकारके चारों अर्थाधिकारोंमें से मात्र बन्धक अर्थाधिकारके आधारसे विषयको सप्रयोजन निबद्ध किया गया है । तथा वर्गणाखण्ड में वर्गणाओंके तेईस भेदोंका सांगोपांग विवेचन करते हुए उनमेंसे प्रसंगवश ज्ञानावरणादि कर्मकि योग्य कार्माण वर्गणाएँ हैं यह बतलाया गया है । वहाँ बन्ध तत्त्वके आश्रयसे बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान इन चारोंको एक श्रृंखला में बाँधकर निबद्ध नहीं किया गया है जिसकी पूर्ति इस खण्ड द्वारा की गई है, अतः इसका महाबन्ध यह नाम सार्थक है । 2 ३. निबद्धीकरण सम्बन्धी शेलीका विचार किसी विषय का विवेचन करनेके लिए तत्सम्बन्धी विवेचन के अनुसार उसे अनेक प्रमुख अधिकारोंमें विभक्त किया जाता है। पुनः अवान्तर प्रकरणों द्वारा उसका सर्वांग विवेचन किया जाता है। प्रवृतमें भी इसी पद्धति द्रव्यकर्म बन्ध तत्त्वको प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन चार प्रमुख अधिकारोंमें विभक्त कर उनमेसे प्रत्येकका ओप और आदेश से अनेक अनुयोग द्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है। इससे द्रव्यकर्मबन्ध तस्य सम्बन्धी समग्र मीमांसाको निबद्ध करनेमें सुगमता आ गई है। समग्र षट्खण्डागम इसी शैली में निबद्ध किया गया है। अतः महाबन्धको निबद्ध करने में भी यही शैली अपनाई गई हैं । ऐसा करते हुए मूलमें कहीं भी किसी पारिभाषिक शब्दको व्याख्या नहीं की गई है । मात्र प्रकरणानुसार उसका उपयोग किया गया है। किन्तु एक पारिभाषिक शब्द एक स्थल पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, सर्वत्र उसी अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है। ४. कर्म शब्द के अर्थकी व्याख्या फर्म शब्दका अर्थ कार्य हैं। प्रत्येक द्रव्य, उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाववाला होनेसे अपने ध्रुवस्वभावका त्याग किये बिना प्रत्येक समयमें पूर्व पर्यायका व्यय होकर जो पर्याय रूपसे नया उत्पाद होता है। वह उस द्रव्यका कर्म कहलाता है । यह व्यवस्था द्रव्योंके समान जीव और पुद्गल द्रव्यमें भी घटित होती है । किन्तु यहाँ जीवके मिथ्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय और योग में से क्रमसे यथासम्भव पाँच, चार, तीन, दो या एकको निमित्त कर कार्मणवर्गणाओंका जो ज्ञानावरणादिरूप परिणमन होता है उसे 'कर्म' कहा गया Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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