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________________ २४२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ भावमनका सद्भाव वहीं तक पाया जाता है । गुणस्थानसे लेकर सिद्ध परमेष्ठी तक भावमनका न होकर उसकी एक पर्याय विशेष है ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है । महाराजोंके चले जानेपर आजकी चर्चा एकेंद्रिय जीवसे लेकर असंज्ञिपंचेन्द्रिय जीव तक और तेरहवें सद्भाव नहीं पाया जाता है। भावमन यह ज्ञान सामान्य और पर्याय विशेष द्रव्यकी सभी अवस्थाओंमें उपलब्ध होनी ही चाहिये, इस तरह और भी बहुत कुछ चर्चा होकर १२ बजे के करीब सभी बन्द कर दी गई । दूसरे दिन सुबह यह विचार करके कि इस मनोमालिन्यका कारण केवल भावमन सम्बन्धी चर्चा न होकर और भी कुछ होना चाहिए इसलिए इस विषयके विचारके लिए एक अ भवी बयोवृद्ध बुद्धिमान्की और आवश्यकता है। अतएव फलटण के प्रसिद्ध वकील, अध्यात्मप्रेमी श्रीमान् दोशी चन्दूलालजी सा० को और बुलाया गया। प्रसन्नताकी बात है कि आप मे इस निवेदनको स्वीकार कर लिया । इस समय श्रीयुक्त पं० बाहुबलीजी शास्त्रीके न आ सकने के कारण वकील सा० और मैं इस तरह हम दोनों उभय पक्षके कथनको सुन आये। बाद सायंकालको हम तीनोंने मिलकर यह निश्चय किया कि मनोमालिन्य के ऐसे कोई विशेष कारण नहीं हैं, केवल अपने-अपने पक्षकी पुष्टि के लिये यह वाद बढ़ गया है। अथवा पूज्य महाराजोंकी दूसरी बातोंके विचार करनेका श्रावकोंको विशेष अधिकार नहीं है अथवा इसमें विशेष स्वारस्य नहीं है । अतएव शास्त्रीय दृष्टिसे भावमन के सम्बन्ध में उचित निर्णय दे दिया जावे और वह शांतिसिधु में जाहिर कर दिया जावे ताकि यह वाद अपने आप शान्त हो जावेगा । इस तरह हम तीनोंका एक मत हो जानेपर तीनों जनोंका शास्त्रीय दृष्टिसे विचार-विनिमय चालू हो गया। यहाँपर इस बातका विशेषरूपये उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि सहूलियतकी दृष्टिसे श्रीयुक्त शास्त्री बाहुबलिजी शर्माने पूर्वपक्ष और मैंने उत्तर पक्षका काम लिया था तथा श्रीयुत वकील सा० मध्यस्थीका काम करते थे। चर्चाका विषय हमारी टिप्पणी रक्खी गई थी । चर्चाका प्रारम्भ करते हुए श्रीशास्त्रीजीने भावमन संयोगज धर्म है इस वाक्यके ऊपर आपत्ति उपस्थित की । इस विषयमें उनका कहना यह था कि यदि भावमन आत्माका निजभाव है, तो वह संयोगज कभी भी नहीं हो सकता है। इसके ऊपर मैने कहा कि भावमन निजभाव न होकर आत्माका वैभाविक भाव है । अतएव उसे संयोगज मानना ही इष्ट है । वह वैभाविक भाव कैसे है ? आत्माकी सभी अवस्थाओं में क्यों नहीं हो सकता है। इसके लिये मैंने गोमट्टसार और सर्वार्थसिद्धि के आधार निकाल कर दिखलाये । अन्तमें भावमन तेरहवें गुणस्थानमें नहीं पाया जाता है । इस प्रकार के स्पष्ट शास्त्रोल्लेख सहित इसका निर्णय शांतिसिन्धु में प्रकाशित कर दिया जावे, ऐसा अधिकार दोनों महानुभावोंने मुझे दिया जिस अधिकारसे उस समय की चर्चाको ध्यानमें रखकर मैंने यह निर्णय शांतिसिन्धु में प्रकाशित कर दिया था। इस निर्णय पक्षविशेषकी पुष्टिका ध्यान न रखकर शास्त्र मर्यादाका ही ध्यान रक्खा गया है । निर्णय इस निर्णय भावमनका लक्षण, भावमन किस ज्ञानका भेद है, भावमनका स्वामी, भावमनका भाव, उसको जीव सम्बन्धी माननेमें हेतु उसको पौद्गलिक माननेमें हेतु इत्यादि विषयोंका क्रमसे विवेचन किया गया है। 3 लक्षणविचार ज्ञानावरण कर्मके भेदोंमेंसे नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धिरूप भावमन कहते हैं और उसीके वस्तु ग्रहणरूप प्रवृत्तिको उपयोगरूप भावमन कहते हैं। गोमट्टसार जीवकांडके संज्ञिमागंणा प्रकरण में यही कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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