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________________ और भावमन सम्बन्धी वाद खुलासा बी० [सं० २४६३में फलटणमें थी १०५ ० विमलसागर जी महाराज आदि ४ सल्लक और श्रीयुत ब्र० देवप्पा कापसीकर व ब्र० नन्दलालजी इनका चतुर्मास था । चतुर्मासमें समयसारके ऊपर ब्र० नन्दलालजीका प्रवचन होता था । समयसार में निश्चय दृष्टिसे कर्म निमित्तक भावोंको पर पुद्गलरूप कहा गया है इसलिए समयसारका व्याख्यान करनेवाले निश्चय दृष्टि भावमनको पौद्गलिक कहते हैं । नन्दलालजी भी अपने व्याख्यानमें इसी विषयका उल्लेख करते होंगे इसके ऊपर श्री १०५ क्षुल्लक सूरिसिंह महाराजने यह प्रचन किया है कि भाव मन पौद्गलिक न होकर आत्माका धर्म है । आगे यही विषय बारम्बार निकलनेके कारण वादका विषय हो गया तथा यह वाद उन दोनोंमें सीमित न रहकर बाहिर फैलने लगा । इसी कारणसे श्री १०५ ० सूरिसिंहजी महाराजने शान्तिसिन्धु में श्रीयुक्त तलकचन्द वेणीचन्दजी शहा वकील इनके नामसे भावनके सम्बन्ध में प्रकाशनार्थं एक लेख भेजा था। जिसके ऊपर दोनों दृष्टिकोणोंको बिलकुल स्पष्ट करनेके लिये मैंने एक टिप्पणी दे दी थी । इस लेख के प्रकाशित हो जानेके कारण फलटणकी परिस्थिति और भी अधिक विषम हो गई और अन्तमें इस विषयके योग्य निर्णय के लिए श्रीमान् तलकवन्द वेणीचन्द शहा वकीलने तार द्वारा मुझे और श्रीयुक्त पं० बाहुबलिजी शास्त्रीका बुलाया। रात्रिको इस विषयका विचार करनेके लिए श्री १००८ आदिनाथ भगवान् के मन्दिर में विचार विनिमय हुआ । प्रारम्भ में श्री शहा तलकचन्द वेणीचंद वकील सा० से पूछने पर कि आपने हम लोगोंको बुलाया है इसका क्या कारण है ? उसके उत्तरमें आपने कहा कि हमारे यहाँ भावमनके सम्बन्धमें वाद चालू है इसलिये शास्त्राधारसे इस विषयका उचित निर्णय करानेके लिये आप लोगों को बुलाया गया है । इसके बाद श्रीयुक्त वकील सा० ने भावनके सम्बन्धमें उनको जो कुछ कहना था- अत्यन्त पद्धति पूर्वक प्रश्नरूपमें हम लोगोंके सामने रक्खा 1 श्रीयुत् वकील सा० का कहना यह था कि भावमन यह लब्धिरूप या ज्ञानरूप होनेके कारण एकेंद्रिय लेकर केवल पर्यंत सब जीवोंके व्यक्त और अव्यक्त रूपमें होता है। यदि एकेंद्रियादिक जीवोंके भावमन न माना जाये तो उनके कर्मबंध कैसे हो सकता है। उसी प्रकार ज्ञानरूप होनेके कारण वह केवली अवस्थामें भी नष्ट नहीं होता। इस कथनसे श्रीमान् १०५ ० मूरिसिंह महाराज सहमत थे। इसके बाद हम लोगोंने श्रीयुक्त, नन्दलालजी सा० से पूछा कि आपको इस विषयमें कुछ कहना हो तो कहिये। जिसके ऊपर ब्र० जीने कहा कि हमें विशेष कुछ नहीं कहना है। इसी कथनपर आपलोग विचार करिए। तदनन्तर मैंने वकील सा. से कहा कि भावमन यह ज्ञानकी पर्याय अथवा लब्धिरूप होते हुए भी सभी जीवोंके नहीं पाया जाता है । कर्मबन्धका कारण भावमन न होकर मिथ्यात्व आदिक ही समझना चाहिए । भावन यह क्षायोपशमिक भाव होनेके कारण सभी जीवोंकी सभी अवस्थाओं में उसका रहना कोई आवश्यक बात नहीं है । जहाँ नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम रहता है, वहीं पर भावमन होता है । नोइंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम शिपंचेंद्रिय जावक मिध्यात्व गुणस्थानसे लेकर १ वं गुणस्थान तक ही होता है, अतएव ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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