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________________ 'नो इंद्रियं मनः तदावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं वा संज्ञा' नोइन्द्रिय मनको कहते हैं । उस नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको संज्ञा कहते । यहाँपर यह ध्यानमें रखना चाहिये कि संज्ञा और भावमन एकार्थवाची शब्द हैं । 'वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयं पशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः ।' - सर्वार्थसिद्धि. वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे जो आत्मा में विशुद्धि उत्पन्न होती है उसको भावमन कहते है । इस लक्षणमें जो वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशमका उल्लेख किया है, उसका कारण इतना ही समझना चाहिये कि किसी भी ज्ञानकी प्रवृत्ति सामथ्यंवीर्यके विना नहीं हो सकती है । अतएव प्रत्येक ज्ञानमें वीर्यका सम्बन्ध जोड़ा है । चतुर्थखण्ड : २४३ भावमन किस ज्ञानका भेद है ? 'तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमवग्रहादिधारणापर्यंततया चतुर्विधमपि बह्वादिद्वादशभेदमष्टचत्वारिंशत्संख्यं प्रतीन्द्रियं प्रतिपत्तव्यम् । अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य चोक्तप्रकारेणाष्टचत्वारिंशद्भ ेदेन मनोनयनरहितानां चतुर्णामपीन्द्रियाणां व्यंजनावग्रहस्याष्टचत्वारिंशद्भ ेदेन च समुदितस्येन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षस्य षट्त्रिंशदुत्तरा त्रिशती संख्या प्रतिपत्तव्या । " - प्रमेय रत्नमाला. शास्त्र कारोंने मतिज्ञानके ३३६ भेद किये हैं । अवग्रह आदि चारको पाँच इन्द्रिय और मनसे गुणा करके बहु आदिक १२ प्रकारके पदार्थोंसे गुणा करनेपर अर्थके २८८ भेद होते हैं और मन तथा नेत्र इन्द्रियसे रहित शेष चार इन्द्रियोंसे बहु आदिक १२ प्रकारके पदार्थों का गुणा करनेपर व्यजनावग्रहके ४८ भेद होते हैं । इस तरह कुल मतिज्ञानके भेद ३३६ होते हैं । इस तरह यह पता चल जाता है कि भावमन यह मतिज्ञानका एक भेद है । उसी भावमनका विषय श्रुतज्ञानके द्वारा जाना हुआ पदार्थ भी पड़ता है । इस कथनसे भावमनका आलंबन श्रुतज्ञानके लिये भी होता है । यह जाना जाता है । इस तत्त्वकी पुष्टि "श्रुतमनिन्द्रियस्य" इस सूत्र - से होती है । भावमनका स्वामी ? मनसहित जीवको संज्ञी कहते हैं और मन रहित जीवको असंज्ञी कहते हैं । 'मनो व्याख्यातं सह तेन ये वर्तते ते समनस्काः संज्ञिन इत्युच्यन्ते । पारिशेष्यादितरे संसारिणः प्राणिनोऽसंज्ञिन इति सिद्धम् । - सर्वार्थसिद्धि मनका व्याख्यान पहिले कर आये, जो मनसहित हैं उन्हें समनस्क अर्थात् संज्ञी कहते हैं । तथा बाकी जो संसारी प्राणी हैं वे अमनस्क अर्थात् असंज्ञी समझना चाहिये । एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत अमनस्क समझना चाहिये और समनस्कता भी बारहवें गुणस्थान पर्यंत होती है । सणीसपदी खीणकसाओत्ति होदि नियमेण । थावर काय पहूदी असण्णित्ति हवे असण्णी हु ।। ६९७|| 'संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवः संज्ञिमिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायांतं भवति' । - जीवकांड. संज्ञिमार्गणा में संज्ञीजीव संज्ञिमिथ्या दृष्टिसे लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है और असंज्ञी एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पर्यंत होता है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सयोगकेवलीके भावमन नहीं होता है, फिर भी इसकी पुष्टि के लिये और खुलासा किया जाता 1 योगिनो हि द्रव्यमनः सदपि न भावमनः सहितं द्रव्येंद्रियं च न भावेद्रिययुक्तं क्षायिकज्ञानेन सह क्षायोपशमिकस्य भावमनोज्ञस्य विरोधात् । - श्लोक वार्तिक. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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