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________________ २३८: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ सेनाके निकलनेपर राजा निकला ऐसा कहना भी आरोपित असद् व्यवहारका दूसरा उदाहरण है। विचार कर देखा जाय तो सेना निकली यह व्यवहार स्वयं उपचरित है। उसमें भी सेनासे राजामें अत्यन्त भेद है। वह सेनाके साथ गया भी नहीं है। अपने महलमें आराम कर रहा है। फिर भी लोकानुरोधवश प्रयोजनविशेषसे सेनाके निकलनेपर राजा निकला या राजाकी सवारी निकली यह व्यवहार किया जाता है जो सर्वथा असत है इसलिये प्रयोजन विशेषसे किये गये इस व्यवहारको भी आरोपित असद् व्यवहार ही जानना चाहिए। इसी प्रकार लोकमें और भी बहतसे व्यवहार प्रचलित हैं, क्योंकि वे किसी द्रव्यके न तो गण ही हैं और न पर्याय ही हैं इसलिए जो व्यवहार विवक्षित पदार्थों में पर्यायदृष्टिसे प्रतीतिमें आता है वह मोक्षमार्गमें अनुपादेय होनेसे आश्रय करने योग्य नहीं माना गया है अतएव उसे गौण करके अनेकान्तमूर्ति ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्थापना करना तो उचित है। किन्तु जो व्यवहार वस्तु भूत न होनेसे सर्वथा असत है, मात्र लौकिकदष्टिसे ज्ञानमें उसकी स्वीकृति है। उसका मोक्षमार्गमें सर्वथा निषेध ही करना चाहिये । वस्तुमें अनेकान्तकी प्रतिष्ठा करते समय आत्मामें ऐसे व्यवहारको गौण करनेका प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो व्यवहार भूतार्थ होता है उसे ही नय विशेषके आश्रयसे गौण किया जाता है। किन्तु जिसकी विवक्षित वस्तु में सत्ता ही नहीं है उसे गौण करनेका अर्थ ही उसकी सत्ताको स्वीकार करना है जो युक्तियुक्त नहीं है । इसलिए जितना भी असत् व्यवहार है उसे दुरसे ही त्यागकर और जितना पर्यायदृष्टि से भूतार्थ व्यवहार है उसे गौण करके एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी उपासना ही मोक्षमार्गमें तरणोपाय है ऐसा निर्णय यहॉपर करना चाहिए। यहाँपर यह प्रश्न होता है कि वर्णादि तो पुद्गल के धर्म है, इसलिए आत्मामें ज्ञायकस्वभावके अस्तित्वको दिखलाकर उसमें उनका नास्तित्व दिखलाना तो उचित प्रतीत होता है। परन्तु आत्मामें ज्ञायकभावके अस्तित्वका कथन करते समय उसमें प्रमत्तादि भावों के नास्तित्वका कथन करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि ये दोनों भाव (ज्ञायक भाव और प्रमत्तादि भाव) एक द्रव्यके आश्रयमे रहते हैं, इसलिए एक द्रव्यवृत्ति होनेसे ज्ञायकभावके अस्तित्वके कथनके समय इन भावोंका निषेध नहीं बन सकता, अतएव इस दृष्टि से अनेकान्तका कथन करते समय 'कथंचित् आत्मा ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' ऐसा कहना चाहिए। यह कहना तो बनता नहीं कि आत्मामें प्रमत्तादि भावोंकी सर्वत्र व्याप्ति नहीं देखी जाती, इसलिये आत्मामें उनका निषेध किया है, क्योंकि कहींपर (प्रमत्तगुणस्थान तक) प्रमत्तभावकी और आगे अप्रमत्तभावकी व्याप्ति बन जानेसे आत्मामें ज्ञायकभावके साथ इनका सद्भाव मानना ही पड़ता है। यह एक प्रश्न है । समाधान यह है कि इस अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक पदार्थका कथन शब्दोंसे दो प्रकारसे किया जाता है। एक क्रमिकरूपसे और दूसरा यौगपद्यरूपसे । कथन करनेका तीसरा कोई प्रकार नहीं है । जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा भिन्न-भिन्न अर्थरूप विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्दमें अनेक धर्मों के प्रतिपादनको शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मोंकी कालादिकी दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक ही शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोका अखण्डभावसे युगपत् कथन हो जाता है । यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप है और सकलादेश प्रमाणरूप । इसलिए वस्तुके स्वरूपके स्पर्शके लिए सकलादेश और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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