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________________ चतुर्थ खण्ड : २३९ विकलादेश दोनों ही कार्यकारी हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। एक ही वचनप्रयोग जिसे हम सकलादेश कहते हैं वह विकलादेशरूप भी होता है और सकलादेश रूप भा। यह वक्ताके अभिप्रायपर निर्भर है कि वह विवक्षित वचन प्रयोग किस दृष्टि से कर रहा है। यथावसर उसे समझनेकी चेष्टा तो की न जाय और उसपर एकान्त कथनका आरोप किया जाय यह उचित नहीं है । अतएव वक्ता कहाँ किस अभिप्रायसे वचनप्रयोग कर रहा है इसे समझकर ही पदार्थका निर्णय करना चाहिए। 'कथंचित् जीव है ही' यह वचनप्रयोग सकलादेश भी है और विकलादेशरूप भी। यदि इस वाक्यमें स्थत 'है' पद अन्य अशेष धर्मोको अभेदवृत्तिसे स्वीकार करता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वाक्यमें स्थित 'है' पद मुख्यरूपसे अपना ही प्रतिपादन करता है तथा शेष धर्मों को 'कथंचित्' पद द्वारा गौणभावसे ग्रहण किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप हो जाता है। कौन वचन सकलादेशरूप है और कौन वचन विकलादेशरूप यह वचन प्रयोगपर निर्भर न होकर वक्ताके अभिप्रायपर निर्भर करता है। अतएव 'जीव ज्ञायकभावरूप ही है। ऐसा कहनेपर यदि इस वचनमें अभेदवृत्ति की मुख्यता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वचनमें कथंचित् पद द्वारा गौणभावसे अन्य अशेष धर्मोको स्वीकार किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप भी ो जाता है ऐसा यहाँपर समझना चाहिए । यद्यपि यह बात तो है कि सम्यग्दृष्टिके ज्ञान में जहाँ ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्वीकृति है वहाँ उसमें संसार अवस्था और मुक्ति अवस्थाकी भी स्वीकृति है । वह जीवकी संसार और मुक्त अवस्थाका अभाव नहीं मानता । संसारमें जो उसकी नर-नारकादि और मतिज्ञान-श्रुतज्ञानादि रूप विविध अवस्थायें होती हैं उनका भी अभाव नहीं मानता। यदि वह वर्तमानमें उनका अभाव माने तो वह मुक्तिके लिए प्रयत्न करना ही छोड़ दे । सो तो वह करता नहीं, इसलिए वह इन सबको स्वीकार करके भी इन्हें आत्मकार्यकी सिद्धि में अनपादेय मानता है, इसलिए वह इनमें रहता हआ भी इनका आश्रय न लेकर त्रिकाली नित्य एकमात्र ज्ञायकस्वभावका आश्रय स्वीकार करता है। निश्चयनय और व्यवहारनयके विषयोंको जानना अन्य बात है और जानकर निश्चयनयके विषयका अवलम्बन लेना अन्य बात है । मोक्षमार्गमें इस दृष्टिकोणसे हेयोपादेयका विवेक करके स्वात्मा और परमात्माका निर्णय किया गया है । यदि लौकिक उदाहरण द्वारा इसे समझाना चाहें तो यों कहा जा सकता है कि जैसे किसी गृहस्थका एक मकान है। उसमें उसके पढ़ने-लिखने और उठने-बैठनेका स्वतन्त्र कमरा है । वह घरके अन्य भागको छोड़कर उसीमें निरन्तर उठता-बैठता और पढ़ता-लिखता है। वह कदाचित् मकानके अन्य भागमें भी जाता है। उसकी सार-सम्हाल भी करता है। परन्तु उसमें उसकी विवक्षित कमरेके समान आत्मीय बुद्धि न होनेसे वह मकानके शेष भागमें रहना नहीं चाहता । ठीक यही अवस्था सम्यग्दृष्टि की होती है। जो उसे वर्तमानमें नर-नारक आदि वर्तमान पर्याय मिली हुई है वह उसीमें रह रहा है । अभी उसका पर्यायरूपसे त्याग नहीं हुआ है। परन्तु उसने अपनी बुद्धि द्वारा द्रव्यार्थिकनयका विषयभूत ज्ञायकस्वभाव आत्मा ही मेरा स्वात्मा है ऐसा निर्णय किया है, इसलिए वह व्यवहारनयके वियभूत अन्य अशेष परभावोंको गौण कर मात्र उसीका आश्रय लेता है । कदाचित् रागरूप पर्यायकी तीव्रतावश वह अपने स्वात्माको छोड़कर परमात्मामें भी जाता है तो भी वह उसमें क्षणमात्र भी टिकना नहीं चाहता । उस अवस्थामें भी वह अपना तरणोपाय स्वात्माके अवलम्बनको ही मानता है। अतएव इस दृष्टिकोणसे विचार करनेपर सम्यग्दृष्टिका विवक्षित आत्मा स्वात्मा अन्य परात्मा यही अनेकान्त फलित होता है । इसमें 'आत्मा कथंचित ज्ञायक भावरूप है और कथंचित् प्रमत्तादि भावरूप है' इसकी स्वीकृति आ ही जाती है, परन्तु ज्ञायकभाव में प्रमत्तादिभावोंकी 'नास्ति' है, इसलिए इस अपेक्षासे यह अनेकान्त फलित होता है कि 'आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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