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________________ चतुर्थ खण्ड : २३७ गया है यह उक्त कथनका भाव है। इस विषयको ठीक तरहसे समझनेके लिए स्थापना निक्षेपका उदाहरण पर्याप्त होगा। जैसे किसी पाषाणकी मतिमें इन्द्रकी स्थापना करनेपर यही तो कहा जायगा कि वास्तवमें वह पाषाणकी मूर्ति इन्द्र स्वरूप है नहीं, क्योंकि उसमें जीवत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य आदि आत्मगुणोंका अत्यन्ताभाव है । फिर भी प्रयोजनविशेषसे उसमें इन्द्रकी स्थापना की गई है उसी प्रकार बाह्य निमित्तादिकी अपेक्षा आरोपित व्यवहार जानना चाहिए । बाह्य निमित्तादिकी दृष्टिसे आरोपित व्यवहार, जैसे कुम्हारको घटका कर्ता कहना। प्रयोजन विशेषसे आरोपित व्यवहार, जैसे शरीरकी स्तुतिको तीर्थंकरकी स्तुति कहना या सेनाके निकलनेपर राजा निकला ऐसा कहना आदि । विचार कर देखा जाय तो रागादिरूप जीवके परिणाम और कर्मरूप पुद्गल परिणाम ये एक दूसरेके परिणमनमें निमित्त (उपचरित हेत) होते हए भी तत्त्वत. जीव और पद्गल परस्परमें कर्तृ-कर्मभावसे रहित हैं । ऐसा तो है कि जब विवक्षित मिट्री अपने परिणामस्वभावके कारण घटरूपसे परिणत होती है तब कुम्हारकी योग-उपयोगरूप पर्याय स्वयमेव उसमें निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है। ऐसी वस्तुमर्यादा है। परन्तु कुम्हारकी उक्त पर्याय घट पर्या यकी उत्पत्तिमें व्यवहारसे निमित्त होनेमात्रसे उसकी कर्ता नहीं होती, और न घट उसका कर्म होता है, क्योंकि अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके कर्तुत्व और कर्मत्व धर्मका अत्यन्त अभाव है। फिर भी लोक-व्यवहारवश कुम्हारकी विवक्षित पर्यायने मिट्टी की घट पर्यायको उत्पन्न किया इस प्रकार उस पर मिट्टीकी घट पर्यायके कर्तृत्व धर्मका और घटमें कुम्हारके कर्मत्वधर्मका आरोप किया जाता है । यद्यपि शास्त्रकारोंने भो इसके अनुसार लौकिक दृष्टिसे वचन प्रयोग किये हैं, परन्तु है यह व्यवहार असत् ही। यह तो बाह्य निमित्तादिकी दष्टिसे आरोपित व्यवहारकी चरचा हई। अब प्रयोजनविशेषसे आरोपित व्यवहारके उदाहरणोंका विश्लेषण कीजिए-जितने भी संसारी जीव एक कालमें कमसे कम दो और अधिकसे अधिक चार शरीरोंका संयोग अवश्य होता है । यहाँ तक कि तीर्थंकर सयोगी-अयोगी जिन भी इसके अपवाद नहीं हैं। अब विचार कीजिए कि जीवके साथ एकक्षेत्र वगाहीरूपसे सम्बन्धको प्राप्त हुए उन शरीरोंमें जो अमुक प्रकारका रूप होता है, उनका यथासम्भव जो अमुक प्रकारका संस्थान और संहनन होता है इसका व्यवहार हेतु पुद्गल विपाकी कर्मोंका उदय ही है, जीवकी वर्तमान पर्याय नहीं तो भी शरीरमें प्राप्त हुए प आदिको देखकर उस द्वारा तीर्थंकर केवली जिनकी स्तुतिकी जाती है और कहा जाता है कि अमुक तीर्थंकर केवली लोहित वर्ण हैं, अमुक तीर्थंकर केवली शुक्ल वर्ण है और अमुक तीर्थकर केवलो पीतवर्ण हैं आदि । यह तो है कि जब शरीर पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है तो उसका कोई न कोई वर्ण अवश्य होगा । पुद्गलकी पर्याय होकर उसमें कोई न कोई वर्ण न हो यह नहीं हो सकता । परन्तु विचार कर देखा जाय तो तीर्थङ्कर केवलीकी पर्यायमें उसका अत्यन्त अभाव ही है क्योंकि तीर्थङ्कर केवली जीवद्र व्यकी एक पर्याय है जो अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे विभूषित है। उसमें पुद्गलद्रव्यके गुणोंका सद्भाव कैसे हो सकता है ? अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता । फिर भी तीर्थङ्कर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें अन्य तीर्थङ्कर केवलीसे संयोगको प्राप्त हुए शरीरमें वर्णका भंद दिलानेरूप प्रयोजनसे यह व्यवहार किया जाता है कि अमुक तीर्थङ्कर केवली लोहित वर्ण हैं और अमुक तीर्थङ्कर केवली पीतवर्ण हैं आदि । जैसा कि हम लिख आये है कि तीर्थङ्कर केवली जीव द्रव्यकी एक पर्याय है। उसमें वर्णका अत्यन्त अभाव है । फिर भी लोकानुरोधवश प्रयोजन विशेषवश तीर्थकर केवली में उक्त प्रकारका व्यवहार किया जाता है जो तीर्थङ्कर केवलीमें सर्वथा असत् है, इसलिए प्रयोजन विशेषसे किया गया यह आरोपित असत् व्यवहार ही जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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