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________________ २३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं और उसका विषय भी है, परन्तु उससे मुक्त होनेके लिए व्यवहारनयके विषय परसे अपना लक्षा हटाकर निश्चयनयके विषयपर अपना लक्ष्य स्थिर करो। ऐसा करनेसे ही व्यवहाररूप बन्धपर्याय छूट कर निश्चय रत्नत्रयस्वरूप मुक्तिकी प्राप्ति होगा । जिस महान् आत्माने व्यवहाररूप बन्धपर्यायको गौण करके निश्चय रत्नत्रयकी आराधना द्वारा साक्षात् निश्चय रत्नत्रयको प्राप्त किया है उसीने तत्त्वतः पूरे जिनशासनको अनुभवा है । सोचिये तो कि इसके सिवा जिनशासनका अनुभवना और क्या होता है। जैनधर्मके विविध शास्त्रोंको पढ़ लिया, किसी विषयके प्रगाढ़ विद्वान् हो गये यह जिनशासनका अनुभवना नहीं है । जिनशासन तो रत्नत्रयस्वरूप है और उसकी प्राप्ति व्यवहारको गौण किये बिना तथा निश्चयपर आरूढ़ हुए बिना हो नहीं सकती, अतः जिसे पूरे जिनशासनको अपने जीवनमें अनुभवना है उसे हेय या ब धमार्ग जानकर व्यवहारको गौण और मोक्षमार्गमें उपादेय जानकर निश्चयको मुख्य करना ही होगा तभी उसे निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जिनशासनके अपने जीवनमें दर्शन होंगे। यह इस गाथाका भाव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा द्वारा भी गौण-मुख्यभावसे उसी अनेकान्तका उद्घोष किया गया है। ६. 'दसण-णाण-चरित्ताणि' यह सोलहवीं गाथा है । इसमें सर्वप्रथम साधु अर्थात् ज्ञानीको निरन्तर दर्शन, ज्ञान और चारित्रके सेवन करनेका उपदेश देकर व्यवहारका सूचन किया है। परन्तु विचार कर देखा जाय तो ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्माको छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं है, इसलिए इस द्वारा भी तत्स्वरूप अखण्ड आत्मा सेवन करने योग्य है यह सूचित किया गया है। तात्पर्य यह है कि निश्चयका ज्ञान करानेके लिए व्यवहार द्वारा ऐसा उपदेश दिया जाता है इसमें सन्देह नहीं, पर उसमें मुख्यता निश्चयकी ही रहती है । इसके विपरीत यदि कोई उस व्यवहारकी ही मुख्यता मान ले तो उसे तत्स्वरूप अखण्ड और अविचल आत्माकी प्रतीति त्रिकालमें नहीं हो सकती । इस गाथाका यही भाव है। इस विषयको स्पष्टरूपसे समझने के लिए गाथाके उत्तरार्धपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है, क्योंकि गाथाके पूर्वाधमें जो कुछ कहा गया है उसका उत्तरार्धमें निषेध कर दिया है। सो क्यों ? इसलिए नहीं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पर्यायदृष्टिसे भी अभूतार्थ हैं, बल्कि इसलिए कि व्यवहारनयसे देखने पर ही उनकी सत्ता है । निश्चयनयसे देखा जाय तो एक ज्ञायकस्वरूप आत्मा ही अनुभवमें आता है, ज्ञान, दर्शन चारित्र नहीं । इसलिए इस कथन द्वारा भी एक अखण्ड और अविचल आत्मा ही उपासना करने योग्य है यही सूचित किया है। इस प्रकार विचार करके देखा जाय तो इस गाथा द्वारा भी व्यवहारको गौण करके और निश्चयको मुख्य करके अनेकान्त ही सूचित किया गया है। - इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहारसे क्या कहा जाता है और निश्चयसे क्या है इसकी सन्धि मिलाते हए सर्वत्र अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की है । इतना अवश्य है कि बहुत सा व्यवहार तो ऐसा होता है जो अखण्ड वस्तमें भेदमलक होता है। जैसे आत्माका ज्ञान. दर्शन और चारित्र आदिरूपसे भेद-व्यवहार र बन्धपर्यायकी दृष्टिसे आत्मामें नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, मतिज्ञानी, श्रतज्ञानी, स्त्री, पुरुष और नपुंसक आदिरूपसे पर्यायरूप भेदव्यवहार । ऐसे भेदद्वारा एक अखण्ड आत्माका जो भी कथन किया जाता है, पर्यायकी मुख्यतासे आत्मा वैसा है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि आत्मा जब जिस पर्यायरूपसे परिणत होता है उस समय वह तद्रूप होता है, अन्यथा आत्माके संसारी और मुक्त ये भेद नहीं बन सकते, इसलिये जब भी आत्माके ज्ञायक स्वभावमें उक्त व्यवहारका 'नास्तित्व' कहा जाता है तब भेदमूलक व्यवहार गौण है और त्रिकाली ध्रुवस्वभावकी मुख्यता है यह दिखलाना ही उसका प्रयोजन रहता है । परन्तु बहुत-सा व्यवहार ऐसा भी होता है जो आत्मामें बाह्य निमित्तादिकी दृष्टिसे या प्रयोजन विशेषसे आरोपित किया जाता है । यह व्यवहार आत्मामें है नहीं, पर परसंयोगकी दृष्टिसे उसमें कल्पित किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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