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________________ चतुर्थ खण्ड : २३५ इस आत्माको अपने ध्रुवस्वभावको प्रतीति करानो है, इसलिए मोक्षमार्गमें द्रव्यार्थिकदृष्टि (निश्चयनय) की मुख्यता होकर पर्यायार्थिकदृष्टि (व्यवहारनय) गौण हो जाती है । अर्थात् दृष्टि में उसका निषेध हो जाता है । यही कारण है कि यहाँ पर द्रव्याथिकदष्टिकी मुख्यता होनेसे आत्मा ज्ञायकस्वभाव है इसकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है और आत्माके त्रिकालाबाधित ज्ञायकस्वभावमें प्रमत्तादि भाव नहीं हैं यह जानकर आत्मामें इनकी नास्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई है । तात्पर्य यह है कि प्रकृतिमें द्रव्याथिकनयका विषय विवक्षित होनेसे विवक्षितका 'अस्तित्व' द्वारा और अविवक्षितका 'नास्तित्व' द्वारा कथन कर अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ___२. अब ‘ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स' इत्यादि गाथाको लें। इसमें सर्वप्रथम उस ज्ञायकस्वभाव आत्मामें पर्यायाथिक दृष्टिसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य आदि विविध धर्मोकी प्रतीति होती है यह दिखलानेके लिए व्यवह रनयसे उनका सद्भाव स्वीकार किया गया है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करनेपर ये भेद उसमें लक्षित न होकर एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकस्वभावी आत्मा ही प्रतीतिमें आता है, इसलिए यहाँपर भी गाथाके उत्तरार्धमें ज्ञायकस्वभाव आत्माकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराकर उसमें अनुपचरित सद्भुत व्यवहारका 'नास्तित्व' दिखलाते हुए अनेकान्तको ही स्थापित किया गया है। ३. जब कि मोक्षमार्गमें निश्चयके विषयमें व्यवहारनयके विषयका असत्त्व ही दिखलाया जाता है तो उसके प्रतिपादनकी आवश्यकता ही क्या है ऐसा प्रश्न होनेपर 'जह ण वि सक्कमणज्जो' इत्यादि गाथामें दृष्टान्त द्वारा उसके कार्यक्षेत्रको व्यवस्था की गई है और नौवीं तथा दशवी गाथामें दृष्टान्तको दार्टान्तमें घटित करके बतलाया गया है । इन तीनों गाथाओंका सार यह है कि व्यवहारनय निश्चयनयके विषयका ज्ञान करानेका साधन (हेतु) होनेसे प्रतिपादन करने योग्य तो अवश्य है, परन्तु मोक्षमार्गमें अनुसरण करने योग्य नहीं है । क्यों अनुसरण करने योग्य नहीं है इस बातका समर्थन करनेके लिए ११वीं गाथामें निश्चयनयकी भूतार्थता और व्यवहारनयकी अभूतार्थता स्थापित की गई है। यहाँपर जब व्यवहारनय है और उसका विषय है तो निश्चयनयके समान यथावसर उसे भी अनुसरण करने योग्य मान लेने में क्या आपत्ति है ऐसा प्रश्न होनेपर १२वीं गाथा द्वारा उसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि मोक्षमार्गमें उपादेयरूपसे व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य तो कभी भी नहीं है। हाँ गुणस्थान परिपाटीके अनुसार वह जहाँ जिस प्रकारका होता है उतना जाना गया प्रयोजनवान् अवश्य है। इस प्रकार इस वक्तव्य द्वारा भी व्यवहारनय और उसका विषय है यह स्वीकार करके तथा उसका त्रिकाली ध्रुवस्वभावमें असत्त्व दिलाते हुए अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ४. गाथा १३में जीवादिक नौ पदार्थ हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयको स्वीकृति देकर भी भूतार्थरूपसे वे जाने गये सम्यग्दर्शन है सो प्रकृतमें भूतार्थरूपसे उनका जानना यही है कि जीवपदार्थ नौ तत्त्वगत होकर भी अपने एकत्वसे व्याप्त रहता है यह कहकर मोक्षमार्ग में एकमात्र निश्चयनयका विषय ही उपादेय है यह दिखलाया गया है। इसके बाद गाथा १४में भूतार्थरूपसे नौ पदार्थोके देखनेपर एकमात्र अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माका ही अनुभव होता है, अतएव इस प्रकार आत्माको देखनेवाला जो नय है उसे शुद्धनय कहते हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयको गौण और निश्चयनयके विषयको मुख्य करके पुनः अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ५. १५वीं गाथामें उक्त, विशेषणोंसे उक्त आत्माको जो अनुभवता है उसने पुरे जिनशासनको अनुभवा यह कहकर पूर्वोक्त प्रतिपादित निश्चय मोक्षमार्गकी महिमा गाई गई है। व्यवहारनय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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