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________________ २२४ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ समाधान - इसलिये इतर धर्म को द्योतन करनेके लिये 'स्यात्' पदका प्रयोग किया जाता है । तात्पर्य यह है कि एवकारके प्रयोगसे जब इतर निवृत्तिका वस्तुतः प्रसंग प्राप्त होता है तब 'स्यात् ' पद विवक्षित धर्मके साथ इतर धर्मोकी सूचना दे देता है । । यहाँ भी पहला भंग द्रव्यार्थिकनकी विवक्षा से कहा गया है और दूसरा भंग पर्यायाधिकनकी विवा से घटित होता है । द्रव्यार्थिक नय सत्त्वको विषय करता है और पर्यायार्थिक नय असत्त्वको विषय करता है । यहाँ असा अर्थ सर्वथा अभाव नहीं है । किन्तु भावान्तरस्वभाव धर्म ही यहाँ असत्त्वपद से स्वीकृत है । यह प्रमाण सप्तभंगी के साथ नय सप्तभंगीको संक्षिप्त प्ररूपणा है । १५. मोक्षमार्ग में दृष्टिकी मुख्यता है अब सवाल यह है कि जीवनमें मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि के अभिप्रायसे द्रव्यानुयोग परमागम में आत्माको जो स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि अनन्त, विशदज्योति, और नित्य उद्योतरूप एक ज्ञायकस्वरूप बतलाया गया है सो क्यों, क्योंकि जब आत्मा द्रव्य पर्याय उभयरूप है तब आत्मा प्रमत्त नहीं है, अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहकर पर्यायस्वरूप आत्माका निषेध क्यों किया गया है ? यह एक सवाल है जो उन महाशयों की ओर से उठाया जाता है जो तत्त्वप्ररूपणा और मोक्षमार्ग प्ररूपणाको मिलाकर देखते हैं । वस्तुतः ये महाशय आचार्योंको दृष्टिमें करुणाके पात्र हैं। यहाँ यह दृष्टिमें नहीं लेना है कि उपयोग लक्षणवाला जीव अनेकान्तस्वरूप कैसे हैं । आत्मज्ञान करते समय यह तो पहले ही हृदयंगम कर लिया गया है। यहाँ तो यह दृष्टिमें लेना है कि किस रूप में स्वात्माकी भावना करनेसे हम मोक्षमार्ग के अधिकारी बनकर मोक्षके पात्र हो सकते हैं। समयसार परमागम में इसी तथ्यको विशदरूपसे स्पष्ट किया गया है। हमें समयसार परमागमका मनन इसी दृष्टिसे करना चाहिये। वैसे विचार कर देखा जाय तो वहाँ हमें अनेकान्तगर्भित स्याद्वादवाणीका पद-पद पर दर्शन होता है क्योंकि उसमें आचार्य कुन्दकुन्दने परसे भिन्न एकत्वरूप आत्माको दिखलाते हुए उस द्वारा उसी अनेकान्तका सुचन किया है। वे यह नहीं कहते कि जिसका कोई प्रतिपक्षी ही नहीं है ऐसे एकत्वको दिखलाऊँगा । यदि वे ऐसी प्रतिज्ञा करते तो वह एकान्त हो जाता जो मिथ्या होनेसे इष्टार्थकी सिद्धिमें प्रयोजक नहीं होता । किन्तु प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं कि मैं आत्माके जिस एकत्वका प्रतिपादन करनेवाला हूँ उसका परसे भेद दिखलाते हुए ही प्रतिपादन करूँगा । यदि कोई समझे कि वे इस प्रतिज्ञा वचनको ही करके रह गये है सो भी बात नहीं है, क्योंकि जहाँ पर भी उन्होंने आत्माने शायकस्वभावकी स्थापना की है वहाँ पर उन्होंने परको स्वी कार करके उसमें परका नास्तित्व दिखलाते हुए ही उसकी स्थापना की है। इसी प्रकार प्रकृतिमें प्रयोजनीय अन्य तत्वका कथन करते समय भी उन्होंने गौण-मुख्यभावसे विधि-निषेध दृष्टिको साधक ही उसका कथन किया है। अब इस विषयको स्पष्ट करने के लिए हम समयप्राभूतके कुछ उदाहरण उपस्थित कर देना चाहते हैं १. ' ण वि होदि अपमत्तो ण पमत्तो' इत्यादि गाथाको लें । इस द्वारा आत्मामें ज्ञायकस्वभावका 'अस्तित्वधर्म' द्वारा और उसमें प्रमत्ताप्रमत्तभावका 'नास्तित्वधर्म' द्वारा प्रतिपादन किया गया है ।' दृष्टियाँ दो है-- द्रव्याधिकदृष्टि और पर्यायार्थिकदृष्टि द्रव्यार्थिक दृष्टिसे आत्माका अवलोकन करने पर वह ज्ञायकस्वभाव ही प्रतीतिमें आता है क्योंकि यह आत्माका त्रिकालाबाधित स्वरूप है किन्तु पर्यायार्थिकदृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करने पर वह प्रमत्तभाव और अप्रमत्तभाव आदि विविध पर्यायरूप ही प्रतीत होता है । इन दोनों रूप आत्मा है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु यहाँ पर बन्धपर्यायरूप प्रमत्तादि क्षणिक भावोंसे रुचि हटाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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