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________________ चतुर्थ खण्ड : २३३ शंका-अनेकान्तमें यह विधि-प्रतिषेध कल्पना नहीं घटित होती। यदि अनेकान्तमें भी विधि-प्रतिषेध कल्पना घटित होती है तो जिस समय प्रतिषेध कल्पना द्वारा अनेकान्तका निषेध किया जाता है उस समय एकान्तकी प्राप्ति होती है। यदि अनेकान्तमें भी अनेकान्त लगाया जाता है तो अनवस्था दोष आता है, इसलिये वहाँ अनेकान्तपना ही बननेसे उसमें सप्तभंगी घटित नहीं होती? समाधान--नहीं, क्योंकि अनेकान्तमें भी सप्तभंगी घटित हो जाती है । यथा (१) स्यात् एकान्त है, (२) स्यात् अनेकान्त है, (३) स्यात् उभय है, (४) स्यात् अवक्तव्य है, (५) स्यात् एकान्त अवक्तव्य है, (६) स्यात् अनेकान्त अवक्तव्य है, (७) स्यात् एकान्त, अनेकान्त अवक्तव्य है। शंका-यह कैसे ? समाधान-प्रमाण और नयकी मुख्यतासे यह व्यवस्था बन जाती है। इसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं एकान्त दो प्रकारका है-सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त। अनेकान्त भी दो प्रकारका हैसम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । खुलासा इस प्रकार है । प्रमाणके द्वारा निरूपित वस्तुके एक देशको सयक्तिक ग्रहण करनेवाला सम्यक है। एक धर्मकी सर्वथा अवधारणा करके अन्य धर्मोका निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है। तथा एक वस्तुमें युक्ति और आगमसे अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मोको ग्रहण करनेवाला सम्यक् अनेकान्त है और वस्तुको सत्-असत् आदि स्वभावसे शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मोकी मिथ्याकल्पना करनेवाला मिथ्या अनेकान्त है। इनमेंसे सम्यक् एकान्त नय कहलाता है और सम्यक अनेकान्त प्रमाण कहलाता है। उक्त तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्रमें कहते हैं अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ।।१०३।। . हे भगवान आपके शासनमें प्रमाण और नयके द्वारा साधित होनेसे अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है। प्रमाणकी अपेक्षा अनेकान्तस्वरूप है और विवक्षित नयकी अपेक्षा एकान्तस्वरूप है ॥१०३॥ विकलादेश और सप्तभंगी इस प्रकार विवक्षित नयकी मुख्यतासे वस्तुके कथंचित् एकान्तस्वरूप सिद्ध होनेपर विकलादेश क्या है और उस दृष्टिसे सप्तभंगी कैसे बनती है इस पर ऊहापोह करते हैं एक अखण्ड वस्तु में गुणभेदसे अंश कल्पना करना विकलादेश है। इसमें भी कालादिकी अपेक्षा भेदवृत्ति और भेदोपचारसे सप्तभंगी घटित हो जाती है। यथा 'स्यादस्त्येव जीवः' यह प्रथम भंग है तथा 'स्यान्नास्त्येव जीवः' यह दूसरा भंग है । इसी प्रकार उत्तर पांच भंग जान लेने चाहिये । सर्व सामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थादेशकी अपेक्षा पहला विकलादेश है । इस भंगमें वस्तुमें यद्यपि अन्य धर्म विद्यमान हैं तो भी कालादिकी अपेक्षा भेद विवक्षा होनेसे शब्द द्वारा वाच्यरूपसे वे स्वीकृत नहीं हैं। न तो उनका विधान ही है और न प्रतिषेध ही है । इसी प्रकार अन्य भंगोंमें भी स्वविवर्जित धर्मकी प्रधानता रहती है । तथा अन्य धर्मोके प्रति उदासीनता रहती है । न तो उनका विधान ही होता है और न प्रतिषेध हो । शंका-'अस्त्येव जीव' इसमें एव पद लगाकर विशेषण-विशेष्यभावका नियमन करते हैं तब अर्थात् ही इतर धर्मोकी निवृत्ति हो जाती है. उदासीनता कहाँ रही ? ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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