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________________ २३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ १३. स्यात् पदको उपयोगिता इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप कैसे है और इस रूप उसकी सिद्धि कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण करनेके बाद अब जयधवला पु० १ पृ० २८१ के आधारसे स्यात् पदकी उपयोगितापर विशेष प्रकाश डालते हैं। रसकषाय किसे कहते हैं इसका समाधान करते हुए आचार्य यतिवृषभ कहते हैं कि कषायरसवाले द्रव्य या द्रव्योंको कषाय कहते हैं । (ज० ध०, पु० १, पृ० २७७) इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि द्रव्य दो प्रकारके पाये जाते हैं एक कषाय (कसैले) रसवाले और दूसरे अकषाय (अकसैले) रसवाले । इसलिये उक्त सूत्रका यह अर्थ होता है कि जिस एक या अनेक द्रव्योंका रस कसैला होता है वे स्यात् कषाय कहलाते हैं । इसपर यह शंका हुई कि सुत्रमें 'स्यात' पदका प्रयोग नहीं किया गया है, फिर यहाँ स्यात् पदका प्रयोग क्यों किया गया है। इसका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि जिस प्रकार प्रभा दो स्वभाववाली होती है। एक तो वह अन्धकारका ध्वंस करती है और दूसरे वह सभी पदार्थों को प्रकाशित करती है उसी प्रकार प्रत्येक शब्द प्रतिपक्ष अर्थका निराकरणकर इष्टार्थका ही समर्थन करता है । इसलिये विवक्षित अर्थके साथ प्रतिपक्ष अर्थ है इसे द्योतित करनेके लिये यहाँ सूत्रमें 'स्यात्' पदके प्रयोगका अध्याहार किया गया है। इतना स्पष्ट करनेके बाद उक्त तथ्यको ध्यानमें रखकर सप्तभंग की योजना की गई है। यथा (१) द्रव्य स्यात् कषाय है। (२) स्यात् नोकषाय है। ये प्रथम दो भंग हैं। इनमें प्रयुक्त हुआ 'स्यात्' पद क्रमसे नोकषाय और कषाय तथा कषाय-नोकषायविषयक अर्थ पर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है। (३) स्यात अवक्तव्य है। यह तीसरा भंग है। यहाँ कषाय और नोकषायविषयक अर्थपर्यायोंकी अपेक्षा द्रव्यको अवक्तव्य कहा गया है । और स्यात् पद द्वारा कषाय-नोकषायविषयक व्यंजनपर्यायों को द्रव्यमें घटित किया गया है। (४) द्रव्य स्यात् कषाय और नोकषाय है । यह चौथा भंग है। यहां प्रयुक्त हुआ स्यात् पद द्रव्यमें कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायोको घटित करता है।। (५) द्रव्य स्यात् कषाय और अवक्तव्य है। यह पाँचवाँ भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद द्रव्यमें नोकषायपनेको घटित करता है। (६) द्रव्य स्यात् नोकषाय और अवक्तव्य है। यह छठा भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद कषायपनेको घटित करता है। (७) द्रव्य स्यात् कषाय, नोकषाय और अवक्तव्य है । यह सातवाँ भंग है। इसमें प्रयुक्त हुआ स्यात् पद कषाय नोकषाय और अवक्तव्य इन तीनों धर्मोंकी अक्रमवृत्तिको सूचित करता है। इससे विदित होता है कि प्रमाण सप्तभंगीका प्रत्येक भंग किस प्रकार अपूर्व धर्मके साथ समग्र वस्तुको सूचित करता है। इस दृष्टिसे देखा जाय तो ये सातों भंग अपुनरुक्त हैं यह सूचित होता है। इसीका नाम स्याद्वाद है । तथा इसीको कथंचित्वाद भी कहते हैं । १४. अनेकान्त कथंचित् अनेकान्तस्वरूप है ___इस प्रकार प्रमाण सप्तभंगीके द्वारा अनेकान्तस्वरूप वस्तुका कथन करनेके बाद अनेकान्तरूप वस्तु सर्वथा अनेकान्तरूप है या कथंचित् अनेकान्तरूप है इसे स्पष्ट करने के लिये तत्त्वार्थवार्तिक अ० १ स०६ में शंका-समाधान करते हुए लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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