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________________ चतुर्थं खण्ड : २३१ करनेवाले नयका नाम पर्यायार्थिक है । इन दोनोंसे अयुतसिद्ध समुदायरूप द्रव्य कहा जाता है । अतएव गुणको विषय करनेवाला तीसरा नय नहीं हो सकता, क्योंकि नय विकल्पोंके अनुसार प्रवृत्त होते हैं । सामान्य और विशेषका समुदित रूप प्रमाणका विषय है, क्योंकि प्रमाण सकलादेशी होता I अथवा गुण ही पर्याय है ऐसा निर्देश करना चाहिये । अथवा उत्पाद, व्यय और धौव्य हैं, पर्याय नहीं है और उनसे भिन्न गुण नहीं हैं । इसलिये गुण ही पर्याय हैं । ऐसी अवस्था में समानाधिकरणमें मवुप, प्रत्यय करनेपर 'गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्' यह निर्देश बन जाता है । आशय यह है कि गुणोंका सामान्य में अन्तर्भाव होनेपर वे द्रव्यार्थिक नयके विषय हैं और भेद विवक्षामें गुण और पर्यायोंमें अभेद स्वीकार करनेपर वे पर्यायार्थिक नयके विषयरूपसे स्वीकृत किये जाते हैं, इसलिये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही नय सिद्ध होते हैं, तीन नहीं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी द्रव्यके उक्त लक्षणपर विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं नन्वेवमत्रापि पर्यायवद् द्रव्यमित्युक्ते गुणवदित्यनर्थकम्, सर्वद्रव्येषु पर्यायबन्धस्य भावात् । गुणवदिति चोक्ते पर्यायवदिति व्यर्थम्, तत एवेति तदुभयं लक्षणं द्रव्यस्य किमर्थमुक्तम् । शंका - जो गुण पर्यायवाला हो वह द्रव्य है इस लक्षण में भी जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है इतना कहने पर जो गुणवाला है वह द्रव्य है ऐसा कहना निरर्थक है, क्योंकि सभी द्रव्योंमें पर्यायोंकी अनुवृत्ति देखी जाती है । और यदि जो गुणवाला हो वह द्रव्य है ऐसा कहनेपर जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है ऐसा कहना व्यर्थ है, क्योंकि सभी द्रव्य गुणवाले देखे जाते हैं, इसलिये द्रव्यका लक्षण उभयरूप किसलिये कहा गया है ? यह एक शंका है । इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं सहानेकान्तसिद्धये । क्रान्तसिद्धये ॥२॥ पृ० ४३८ ॥ जो गुणवाला हो वह द्रव्य है यह वचन सह अनेकान्तकी सिद्धिके लिये कहा गया है तथा जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है यह वचन क्रम अनेकान्तकी सिद्धि के लिये कहा गया है || २ || गुणवद् द्रव्यमित्युक्तं तथा पर्यायवद् द्रव्यं आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्य युगपत् अनेक धर्मोका आधार है । इस प्रकार परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मो सद्भाव एकद्रव्यमें बन जाता है इसलिये सह अनेकान्तकी सिद्धिके लिये द्रव्यका जो गुणवाला हो वह द्रव्य है यह लक्षण योजित किया गया है । परन्तु जो द्रव्यजात है वह नित्य होने के साथ परिणामी भी है इस प्रकार क्रम अनेकान्तकी सिद्धिके लिये द्रव्यका जो पर्यायवाला हो वह द्रव्य है यह लक्षण कहा गया है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मोका आधार होनेके साथ कथंचित् ( किसी अपेक्षासे) है और कथंचित् ( किसी अपेक्षासे) अनित्य ही है यह सिद्ध हो जाता है । नित्य इस प्रकार प्रत्येक द्रव्यके अपेक्षा भेदसे तत् अतत्, एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य सिद्ध होने में कोई बाधा नहीं आती । शंका- यदि सापेक्ष दृष्टिसे वस्तुको अनेकान्तात्मक माना जाता है तो प्रत्येक वस्तु स्वरूपसे अनेकान्तरूप है यह नहीं सिद्ध होता ? समाधान - अनेकान्त यह वस्तुका स्वरूप है, क्योंकि अपने स्वरूपको ग्रहणकर और परके स्वरूपका अपोहनकर स्थित रहना यह वस्तुका वस्तुत्व है । इसलिये अपेक्षा भेदसे अनेकान्तरूप वस्तुकी सिद्धि करना अन्य बात है । स्वरूपकी दृष्टिसे देखा जाय तो निरपेक्षरूपसे वह स्वयं ही अनेकान्तमय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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