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________________ २३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ याही भाँति पर विकलप बुद्धि कलपना व्यवहार दृष्टि अंश भेद परमानिये ॥१०॥ प्रवचनसार ज्ञेयाधिकार गाथा १०३ से ११५ तक विशेष द्रष्टव्य है। इसमें एक ही द्रव्य कैस तत्अतत्स्वरूप आदि है यह स्पष्ट करनेके साथ सप्तभंगीका भी निर्देश किया गया है। १२. जिनागममें मूल दो नयोंका हो उपदेश है प्रवचनसार और तत्त्वार्थसूत्र आदिमें द्रव्यका “गुणपर्ययवद्रव्यम्" । यह लक्षण दृष्टिगोचर होता है । इसपर तत्त्वार्थवातिकमें शंकासमाधान करते हुए भट्टाकलंकदव कहते हैं गुणा इति संज्ञा तन्त्रान्तराणाम्, आर्हतानां तु द्रव्यं पर्यायश्चेति द्वितीयमेव तत्त्वम्, अतश्च द्वित.यमेव तद्वयोपदेशात् । द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिक इति द्वावेव मूलनयौ । यदि गुणोऽपि कश्चित् स्यात्, तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम् । न चास्त्यसाविति अतो गुणाभावात् गुणपर्यायवदिति निर्देशो न युज्यते ? तन्न, किं कारणम्, अर्हत्प्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात् । उक्तं हि अर्हत्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इति । अन्यत्र चोक्तम् गुण इदि दव्वविधाणं दव्ववियारो य पज्जयो भणिदो । तेहिं अणूणं द्रव्वं अजुदपसिद्धं हवदि णिच्चं ॥ यदि गणोऽपि विद्यते, ननु चोक्तम्-तद्विषयस्ततीयो मलनयः:प्नोति ? नैष दोषः, द्रव्यस्य दावात्मानौ सामान्य विशेषश्चेति । तत्र सामान्यमत्सर्गोऽन्वयः गण इत्यनर्थान्तरम। विशेषो भेदः पर्याय इति पर्यायशब्दः । तत्र सामान्यविषयो नयो द्रव्याथिकः। विशेषविषयः पर्यायाथिकः । तदुभयं समुदितमयुतसिद्धरूपं द्रव्यमित्युच्यते । न तद्विसयस्तृतीयो नयो भवितुमर्हति, विकल्पादेशत्वान्नयानाम् । तत्समुदायोऽपि प्रमाणगोचरः, सकलादेशत्वात् प्रमाणस्य । गुणा एव पर्याया इति वा निर्देशः । अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणि न पर्यायाः। न तेभ्योऽन्ये गुणा सन्ति । ततो गुणा एव पर्याया इति सति समानाधिकरण्ये मतौ सति गुण-पर्यायवदिति निर्देशो युज्यते । पृ० २४३।। शंका-गुण यह संज्ञा अन्य दर्शनोंकी है । आहत दर्शनमें तो द्रव्य और पर्याय इस प्रकार दो रूप ही तत्त्व है और इसलिये तत्त्वको दो रूप स्वीकार कर उन दोका उपदेश दिया गया है। द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दो मूल नय हैं। यदि गुण भी कोई पृथक् तत्त्व है तो उसको विषय करनेवाला तीसरा नय होना चाहिये । परन्तु तीसरा नय नहीं है, इसलिये गुणका अभाव होनेसे 'गुण-पर्यायवद् द्रव्यम्' यह निर्देश नहीं बन सकता? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अर्हत्प्रवचन आदि आगमोंमें गुणका उपदेश है । अर्हत्प्रवचनमें कहा भी है-जो द्रव्यके आश्रयसे हों और स्वयं गुणरहित हों वे गुण हैं । अन्यत्र भी कहा है प्रत्येक द्रव्यके त्रिकाली स्वरूपका ख्यापन करनेवाला गुण है और द्रव्यका विकार पर्याय कहा गया है। इन दोनोंसे सदा काल अयुतसिद्ध द्रव्य है। शंका-यदि गुण अस्तिरूप है तो हम जो कह आये हैं कि उसको विषय करनेवाला तीसरा नय होना चाहिये ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य सामान्य और विशेष इन दो रूप है । उनमेंसे सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एक ही अर्थके वाचक शब्द है । तथा विशेष, भेद और पर्याय ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। उनमेंसे सामान्यको विषय करनेवाले नयका नाम द्रव्याथिक है और विशेषको विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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