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________________ १८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इन घट-पटाटि और धर्मादिक द्रव्योंको भी ज्ञानोत्पत्तिका व्यवहार हेतु स्वीकार कर उन्हें नोकर्म कहना चाहिये। समाधान-घट-पटादि और धर्मादिक द्रव्योके साथ ज्ञानका व्यवहारसे ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो है । ज्ञानोत्पत्तिके व्यवहार साधन रूपसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं है । परीक्षामुखमें कहा भी है नार्थालोको कारणम्, परिच्छेद्यत्वात् तमोवत । अर्थ और आलोक ज्ञानोत्पत्तिके (व्यवहार) कारण नहीं है, क्योंकि वे ज्ञेय हैं, अन्धकारके समान । इस प्रकार ज्ञानावरणादिको कर्म और शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया इसकी सिद्धि हो जानेपर इनके साथ संसार अवस्थामें जीव कार्यो के साथ जो कार्य-कारणभाव कहा गया है वह असद्भूत व्यवहारनयसे ही कहा गया है । तब यह इस कार्यका कारण है या इस कारणका यह कार्य है ऐसा असद्भूत व्यवहार तो बन जाता है। पर निश्चयनय न तो इस व्यवहारको स्वीकार करता है और न ही सद्भुत व्यवहारको ही स्वीकार करता है । इतना हो नहीं, प्रत्युत अपना निषेधकरूप स्वभाव होनेके कारण वह ऐसे व्यवहारका निषेध ही करता है। ‘एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण (समयसार गाथा २७२) इस प्रकार निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय निषेध रने योग्य जानो यह वचन इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कहा गया है । इस प्रकार प्रागभाव और उपादान कारण इनमें एक वाक्यता कैसे है और इस आधारपर निश्चय उपादानमें विवक्षित कार्यकी नियामकता कैसे बनती है इसका सम्यक् विचार किया। अब आगे प्रकृत विषय उपादान-उपादेयभावको और तदनुषंगी व्यवहार निमित्त-नैमित्तिकभावको ध्यानमें रखकर 'दृष्टिका माहात्म्य' इस प्रकरणके अन्तर्गत कैसी दृष्टि बनानेसे जीवका संसार चालू रहता है और बढ़ता है तथा कैसी दृष्टि बनानेसे जीव मोक्षमार्गी बन कर मुक्तिका पात्र होता है इस विषयपर संक्षेपमें ऊहापोह करेंगे। ५. दृष्टिका माहात्म्य दृष्टियाँ दो प्रकारकी है-एक व्यवहार दृष्टि और दूसरी निश्चय दृष्टि । अनेकान्त स्वरूपकी समग्रभावसे स्वीकार करनेवाली प्रमाण दृष्टि सकलादेशी होनेसे प्रकृतमें उससे प्रयोजन नहीं है। समयसार गाथा २७२ में इन दोनों दृष्टियोंका स्वरूप निर्देश तथा उनके फलका निर्देश इस प्रकार किया गया है आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिसिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं, चायं आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् । पराश्रितव्यवहारनयस्यकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाणत्वात् । ___ आत्माश्रित (स्व. आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (परके आश्रित) व्यवहारनय है। वहाँ पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान (परमें एकत्व बुद्धिरूप या पर पदार्थों में उपादेय रूपसे इष्टानिष्ट बुद्धिरूप समस्त विकल्प) बन्धके कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उनका निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनयके द्वारा वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध कराया गया है, क्योंकि जैसे अध्यवसानभाव पराश्रित हैं वैसे ही व्यवहारनय भी पराश्रित है, उनमें कोई अन्तर नहीं है-वे एक हैं। और इस प्रकार अध्यवसान भाव निषेध करने योग्य ही हैं, क्योंकि आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही (स्वरूपलाभ कर कर्मोसे) मुक्त होते है और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकान्तसे कर्मोसे नहीं छूटनेवाला अभव्य जीव भी करता है ।।२७२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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