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________________ चतुर्थ खण्ड : १८९ परमें आत्म बुद्धिका नाम या उपादेय भावसे परमें इष्टानिष्ट बुद्धिका नाम पराश्रयपना है और स्वतः सिद्ध होनेसे अनादि-अनन्त नित्य उद्योतरूप और विशद ज्योति एक ज्ञायकमें तल्लीनतारूप आत्म परिणामका होना स्वाश्रितपना है। इनमेंसे जीवनमें पराश्रयपनेका होना एक मात्र संसारका कारण है। संसारपद्धतिको आगममें जो संयोग मूलक कहा है सो उस द्वारा भी उक्त प्रकारक पराश्रयपनेको ही स्वीकार किया गया है । इस तथ्यको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिये मूलाचार टीका का यह वचन द्रष्टव्य है अनात्मनीनभावस्य आत्मभावः संयोग-अ. १, गा. ४८ । जो भाव आत्माके नहीं हैं उनमें आमभावका होना संयोग है, इसीका नाम पराश्रयपना है । तात्पर्य यह है कि कर्मोदयको निमित्त कर जितने भी भाव होते हैं वे तो पर हैं ही, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुनि हूँ, ऐसा कौन कार्य है जिसे परकी सहायताके विना सम्पन्न किया जा सके । यहाँ तक कि सिद्धोंकी ऊर्ध्वगति भी नियत स्थान तक धर्मास्तिकायको सहायतासे होती है। यदि वे स्वयं गमन करते होते तो लोकानसे ऊपर उनके गमनको कौन रोक सकता था इत्यादि विकल्प भी पर हैं। तथा इनमें आत्मभावका होना ही संयोग या पराश्रयपना है। इस प्रकार जो पराश्रितरूप उपयोग परिणाम अनादिकालसे इस जीवके वर्तता चला आ रहा है उसीको प्रकृतमें व्यवहारनय कहा गया है। अज्ञानकी भूमिकामें सर्वदा रहनेवाला यह भाव अभव्य जीवके तो होता ही है, ऐसे भव्य जीवके भी होता है, क्योंकि अज्ञान अवस्था में पर्याय दृष्टिवाले दोनों ही एक समान हैं। उनमें कोई भेद नहीं है । __ शंका-ज्ञानी या अन्तरात्मा जीवके जो शुभोपयोग होता है उसे तो परम्परा मोक्षका कारण कहा ही है सो क्यों ? समाधान--परमार्थसे मोक्षका साक्षात् कारण तो निश्चय रत्नत्रयपरिणत आत्मा ही है । शुभोपयोगको जो मोक्षका परम्परा कारण कहा जाता है सो एक तो सातवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक शुभोपयोग होता ही नहीं। इससे पूर्वके चौथे आदि तीन गुणस्थानोंमें बहुलतासे शुभोपयोग अवश्य होता है और वह निश्चय रत्नत्रयका सहचर होनेके कारण व्यवहारसे अनुकूल माना गया है। तथा स्वरूप परिणमनपूर्वक जो निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धि प्राप्त हई वह शुभोपयोग कालमें यथावत बनी रहती है, उसकी हा होती, इसीलिये ही शुभोपयोगको व्यवहारसे परम्परा मोक्षका कारण कहा है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा मोक्षका साक्षात् कारण, सविकल्प भूमिकामें कहो या प्राक् पदवीमें कहो व्यवहारसे उसके अनुकूल शुभोपयोग, इस प्रकार शुभोपयोगको व्यवहारसे मोक्षका परम्परा कारण स्वीकार किया गया है । इसकी पुष्टि इस प्रमाणसे हो जाती है-- बाह्यपंचेन्द्रिय वषयभूते वस्तुनि सति अज्ञानभावात् रागाद्यध्यवसानं भवति तस्मादध्यवसानाद बन्धो भवतीति पारंपर्येण वस्तू बन्धकारणं भवति, न च साक्षात।-परमात्मप्रकाश, प०३५४॥ पञ्चेन्द्रियोंकी विषयभूत बाह्य वस्तुके होनेपर अज्ञान भावसे रागादि अध्यवसान होता है, इसलिए अध्यवसानसे बन्ध होता है । इस प्रकार बाह्य वस्तु व्यवहारसे परम्परा बन्धका कारण है। यद्यपि शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार हेतु कहा है किन्तु मोक्षप्राप्तिके समय या उससे अव्यवहित पूर्व समयमें शुभोपयोग जब होता ही नहीं तब इस दृष्टिसे तो वह मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण तो हो नहीं सकता। किन्तु जो निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् कारण है वह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकका व्यवहारसे एक ही है ऐसा स्वीकार करने पर ही शुभोपयोगको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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