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________________ चतुर्थखण्ड : १८७ यह भी वस्तुका स्वरूप है नय केवल अंश ज्ञान होनेसे वह मात्र उनको विवक्षासे उनकी सिद्धि करता है, इसलिये विवक्षा या अपेक्षा नयज्ञानमें होती है वस्तु तो धर्म और धर्मी दोनों दृष्टियोंस पर निरपेक्ष स्वतः सिद्ध है । इतना अवश्य है कि जब एक-एक अशकी अपेक्षा वस्तुको जाना जाता है या उसका कथन किया जाता है तो मात्र दूसरे अंशरूप भी वस्तु है इसको भूलकर मात्र उसी अंशरूप वस्तुको न स्वीकार कर लिया जाय इस तथ्यको ध्यान में रखनेके लिए अपेक्षा या विवक्षा लगाई जाती है । इसलिये अपेक्षा नयज्ञान या नयरूप कथनमें ही होती है, वस्तुमें या उसके स्वरूप सिद्ध धर्मोमें नहीं यह सिद्धान्त कार्य कारणपर भी पूरी तरहसे लागू होता है । निश्चय उपादान स्वरूपसे स्वयं है और निश्चय स्वरूप कार्य (पर्याय ) स्वरूपसे स्वयं है । विवक्षा या अपेक्षा मात्र उनकी सिद्धिमें लगती है । जैसे यह कहना कि यह इस कारणका कार्य है, या यह कहना कि यह इस कार्यका कारण है। इसलिये यह कथन सद्भूत व्यवहारनयका विषय हो जाता है, क्योंकि निश्चय स्वरूप कारणता भी वस्तुका स्वरूप है और निश्वय स्वरूपकार्यता भी वस्तुका स्वरूप है। मात्र उनका एकदूसरेकी अपेक्षासे कथन किया गया है, इसीलिये इस कथनको सद्द्भूत व्यवहारनयका विषय कहा गया है। अब रह गया कर्म और नो कर्मको दृष्टिमें रखकर व्यवहार हेतु और उसकी अपेक्षा व्यवहाररूप कार्यका कथन, सो पहले तो यह देखिये कि ज्ञानावरणादि कर्म और उनसे भिन्न शरीरादि समस्त पदार्थोंकी नोकर्म सज्ञा क्यों है ? ज्ञानावरणादिको आत्माका कर्म क्यों कहा जाता है इस तथ्य को स्पष्ट रूपसे समझने के लिये प्रवचनसार अ. २ गा. २५ की तत्त्वदीपिका टीकाके इस कथनपर दृष्टिपात कीजिये - क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात् कर्म । तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म । आत्माके द्वारा प्राप्य होनेसे क्रिया नियमसे आत्माका कर्म है और उस क्रियारूप राग, द्वेष, मोह और योगको निमित्तकर (व्यवहारसे हेतु कर) जिसने अपना परिणाम प्राप्त किया है ऐसा पुद्गल भी उसका कर्म कहलाता है । ज्ञानावरणादि कर्म वास्तवमें पुद्गलका परिणाम है, फिर उस परिणामकी ज्ञानावरणादि कर्म संज्ञा क्यों रखी गई ? उक्त कथन द्वारा इसी तथ्यको स्पष्ट किया गया है। निमित्तता आनयत है, नोकर्म अर्थात् ईषत् कर्म । सवाल यह है कि शरीरादिको नोकर्म क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि नोर्म दो भेद है. एक तो औदारिक आदि पांच शरीर और दूसरे उनके अतिरिक्त लोकवर्ती सपस्त पदार्थ । इनमे से तो औदारिक आदि पांच शरीरोंको नोकर्म तो इसलिये कहा गया है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयसे जो-जो अज्ञान आदिक कार्य होते हैं उनमें इनकी नियमरूप निमित्तता नहीं। दूसरे मे अज्ञानादिके समान जीवोंके वैभाविक भाव नहीं है। तीसरे घातिया कर्मोंका क्षय हो जानेपर इन औदारिक आदि शरीरोंमें अज्ञानादि भावोंकी उत्पत्तिता में व्यवहारसे निमित्तता भी नहीं रहती । इसीलिये आगम में इन्हें नोकर्म समूहमें सम्मिलित किया गया है। अब रहे अन्य पदार्थ सो वे भी स्वरूपसे निमित्त तो नहीं हैं, व्यवहारसे जब उनका राग, द्वेष और मोह मुलक जीवकार्यों के साथ निमित्तनैमिरिक सम्बन्ध बनता है तभी उनमें इस सम्बन्धको देखकर नोकर्म व्यवहार होता है, सर्वदा नहीं । शंका - घटादि कार्य तो परमार्थसे जीवकार्य नहीं हैं ? समाधान- घटादि कार्यों के होनेमें अज्ञानी जीवके योग और 'मैं कर्ता' इस प्रकार के विकल्पोंमें निमितताका व्यवहार होनेसे व्यवहारसे वे भी जीव-कार्य कहलाते हैं । अतः अज्ञानादि घटादि कार्योंमें अन्य पदार्थों के समान व्यवहार हेतु होनेसे आगम में इन्हें भी नोकर्म माना गया है । शंका-उपयोग स्वरूप ज्ञानके साथ भी तो ऐसा व्यवहार बन जाता है कि घटपटादि पदार्थों के कारण मुझे घट ज्ञान पटज्ञान आदि हुआ । धर्मादिक द्रव्योंके कारण मुझे धर्मादिक द्रव्योंका ज्ञान होता है ? अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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