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________________ १८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तक चलता रहेगा । प्रश्न मार्मिक है, जैनदर्शन इसकी महत्ताको स्वीकार करता है । तथापि इसकी महत्ता तभी तक है जबतक जैनदर्शनमें स्वीकार किये गये 'सत्' के स्वरूप निर्देश पर ध्यान नहीं दिया जाता । वहाँ यदि 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी माना गया होता तो यह आपत्त अनिवार्य होती । किन्तु वहाँ 'सत' को केवल परिणामस्वभावी न मानकर यह स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप धर्मके कारण ध्रुवस्वभाव है तथा उत्पाद-व्ययरूप धर्मके कारण परिणामस्वभावी है। इसलिए 'सत्' को केवल परिणामस्वभावी मानकर जो आपत्ति दी जाती है, वह प्रकृतमें लालू नहीं होती। हम 'सत्' के इस स्वरूपपर तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार पहले ही प्रकाश डाल आये हैं। इसी विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारमें क्या कहते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए - समवेदं खलु दव्वं संभव-ठिदि-णाससण्णिद?हिं ।। एक्कम्मि चेव समए तम्हा दध्वं खु तत्तिदयं ।।१०।। द्रव्य एक ही समयमें उत्पत्ति, स्थिति और व्ययसंज्ञावाली पर्यायोंसे समवेत है अर्थात् तादात्म्यको 'लए हए है, इसलिए द्रव्य नियमसे उन तीनमय है ॥१०॥ इसी विषयका विशेष खुलासा करते हुए वे पुनः कहते हैं पादुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठ ण उप्पण्णं ।।१।। द्रव्यकी अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और अन्य पर्याय व्ययको प्राप्त होती है। तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट ही हुआ है और न उत्पन्न ही हुआ है ॥११॥ यद्ययि यह कथन थोड़ा विलक्षण प्रतीत होता है कि द्रव्य स्वयं उत्पन्न और विनष्ट न होकर भी अन्य पर्यायरूपसे कैसे उत्पन्न होता है और तभिन्न अन्य पर्यायरूपसे कैसे व्ययको प्राप्त होता है। किन्तु इसमें विलक्षणताकी कोई बात नहीं है । स्वामी समन्तभद्र ने इसके महत्त्वको अनुभव किया था। वे आप्तमीमांसामें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥५७।। हे भगवन् ! आपके दर्शनमें सत् अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न अन्वय धर्मकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है, फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है, सो यह पर्यायकी अपेक्षा ही जानना चाहिए, इसलिए सत् एक ही वस्तुमें उत्पादादि तीनरूप है यह सिद्ध होता है ॥५७॥ आगे उसी आप्तमीमांसामें उन्होंने दो उदाहरण देकर इस विषयका स्पष्टीकरण भी किया है। प्रथम उदाहरण द्वारा वे कहते हैं घट मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५९।। घटका इच्छुक एक मनुष्य सुवर्णकी घटपर्यायका नाश होनेपर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य सुवर्णकी घट पर्यायका व्यय होकर मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर हर्षित होता है और मात्र सुवर्णका इच्छुक तीसरा मनुष्य घट पर्यायका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर न तो दुखी होता है और न हर्षित ही होता है, किन्तु माध्यस्थ्य रहता है। इन तीन मनुष्योंके ये तीन कार्य अहेतुक नहीं हो सकते । इससे सिद्ध है कि सुवर्णकी घट पर्यायका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होनेपर भी सुवर्णका न तो नाश होता है और न उत्पाद ही, सुवर्ण अपनी घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्थामें सुवर्ण ही बना रहता है ॥५९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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