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________________ चतुर्थ खण्ड : १८५ दूसरे उदाहरण द्वारा इसी विषयको स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥६०|| जिसने दूध पीनेका व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस सेवन नहीं करनेका व्रत लिया है वह दूध और दही दोनों का सेवन नहीं करता। इससे सिद्ध है कि तत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनमय है ।।६।। आशय यह है कि गोरसमें दूध और दही दोनों गर्भित हैं, इसलिये प्रत्येक तत्त्व (द्रव्य) द्रव्यदृष्टिसे ध्रौव्यस्वरूप है, किन्तु दूध और दही इन दोनोंमें भेद है, क्योंकि दूधरूप पर्यायका व्यय होनेपर ही दहीकी उत्पत्ति होती है, इसलिए विदित होता है कि वही तत्त्व पर्याय दृष्टिसे उत्पाद और व्ययस्वरूप भी है। सर्वार्थसिद्धिमें इस विषयका और भी विशदरूपसे स्पष्टीकरण किया गया है। उसमें आचार्य पूज्यपाद कहते हैं चेतनस्याचेतनस्य द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमित्तवशात् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः, मत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतेः । अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोत्पादाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम् । यथा मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः । तैरुत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -सर्वार्थ सिद्धि अ० ५ सू० ३० अपनी-अपनी जातिको न छोड़ते हुए चेतन और अचेतन द्रव्यकी उभयनिमित्तके वशसे अन्य पर्यायका उत्पन्न होना उत्पाद है। जैसे मिट्टीके पिण्डका घट पर्यायरूपसे उत्पन्न होना उत्पाद है ! उन्हीं कारणोंसे पूर्व पर्यायका प्रध्वंस होना व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकृतिका नाश होना व्यय है । तथा अनादि कालसे चले आ रहे अपने पारिणामिक स्वभावरूपसे तत्त्वका न व्यय होता है और न उत्पाद होता है । किन्तु वह स्थिर रहता है। इसीका नाम ध्रुव है । ध्रुवका भाव या कर्म ध्रौव्य है । तात्पर्य यह है कि पिण्ड और घटादि अवस्थाओंमें मिट्टी अन्वयरूपसे तदवस्थ रहती है, इसलिये जिसप्रकार एक ही मिट्टी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाव है उसीप्रकार इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय सत् है । वस्तुतः परमाणसे निश्चय उपादानको कार्यका नियामक कहा गया है। क्योंकि कार्य द्रव्यसे अव्यवहित पूर्ववर्ती द्रव्यको प्रागभाव कहते हैं और प्रागभावका अभाव ही कार्य द्रव्य कहलाता है। यहाँ जो प्रागभावका लक्षण दिया है वही निश्चय उपादानका लक्षण हैं, इसलिये आत्ममीमांसाकारिका १० में जो यह आपत्ति दी गई है कि प्रागभाव न माननेपर कार्य द्रव्य अनादि हो जायगा सो यही आपत्ति निश्चय उपादानके नहीं स्वीकार करनेपर भी प्राप्त होती है। प्रागभावका उक्त सुनिश्चित लक्षण किस दृष्टि से स्वीकार किया गया है इसका विस्तारसे १. यहाँ पर निमित्त शब्द व्यवहार और निश्चय उभय कारणवाची है। तदनुसार निमित्त शब्दसे बाह्य निमित्त और निश्चय उपादान दोनोंका ग्रहण हुआ है । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार कार्यकी स्वयं उत्पत्तिमें अज्ञानी जीव अपने प्रयत्न द्वारा या अन्य द्रव्य अपनी क्रिया द्वारा या उसके बिना ही निमित्त होता है । इसलिए टीकामें उभय निमित्तके वशसे उत्पन्न होना ऐसा कहा है। २, कार्यात्प्रागनन्तरपर्यायः तस्य प्रागभावः । तस्यैव प्रध्वंसः कार्य घटादिः । १० ९७ । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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