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________________ चतुर्थ खण्ड : १७३ द्रव्यकी बहलता और प्रधानता हो जानेसे कृतिकर्म देवदर्शन और देवपूजा-इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त हो गया है । वस्तुतः इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। गृहस्थ अपने साथ प्रासुक द्रव्य लाकर यथास्थान उसका प्रयोग करे यह बात अलग है । इसका निषेध नहीं है । पण्डितप्रवर आशाधरजीने श्रावककी दिनचर्या में त्रिकाल देववन्दनाके समय दोनों प्रकारसे पूजा करनेका विधान किया है। प्रातःकालीन देववन्दनाका विधान करते हुए वे लिखते हैं कि श्री जिनमन्दिर में जाते समय गहस्थ को चार हाथ भूमि शोधकर जाना चाहिए । मन्दिरमें पहुँचकर और हाथ-पैर धोकर सर्वप्रथम 'जाव अरहंताणं' इत्यादि वचन बोलकर पहले ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए । अनन्तर 'जयन्ति निजिताशेष-' इत्यादि पढ़ कर या पूजाष्टक पढ़कर देववन्दना करनी चाहिए । सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेवकी पजा करे । उसके बाद श्रुत और सूरिकी पूजा करे। इसे वे जघन्य वन्दनाविधि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि अष्ट द्रव्यसे यदि गृहस्थ देववन्दना करता है तो सर्वोत्कृष्ट है और यदि अष्टद्रव्यके बिना करता है तो भी हानि नहीं है । मात्र देववन्दना यथाविधि होनी चाहिए। पूजाविधिका अन्य प्रकार साधारणतः देवपूजाका जो पुरातन प्रकार रहा है और उसका वर्तमान समयमें प्रचलित पूजाविधिमें जिस प्रकार समावेश किया गया है, उसका हमने स्पष्टीकरण किया ही है। साथ ही उसमें न्यूनाधिकता हुई है, उसपर भी हम विचार कर आये हैं। यहाँ हम पूजाके उस प्रकारका भी उल्लेख कर देना चाहते हैं, जिसे सोमदेवसूरिने यशस्तिलकचम्पूमें निबद्ध किया है, क्योंकि वर्तमान प्रजाविधिपर इसका विशेष प्रभाव दिखलाई देता है । वे लिखते हैं प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना संनिधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥-कल्प ३६।। देवपूजा छह प्रकारकी है--प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, संनिधापन, पूजा और पूजाफल । इन छह कर्मोंका विस्तृत विवेचन करते हुए वे लिखते हैं-जिनेन्द्रदेवका गुणानुवाद करते हुए अभिषेकविधि करनेकी प्रस्तावना करना प्रस्तावना है। पीठके चारों कोणोंपर जलसे भरे हुए चार कलशोंकी स्थापना करना पुराकर्म है। पीठपर यथाविधि जिनेन्द्र देवको स्थापित करना स्थापनाकर्म है। ये जिनेन्द्रदेव है, यह पीठ मेरुपर्वत है, जलपर्ण ये कलश क्षीरोदधिके जलसे पूर्ण कलश हैं और मैं इन्द्र हैं, जो इस समय अभिषेकके लिए उद्यत हुआ हूँ-ऐसा विचार करना संनिधापन है । अभिषेकपूर्वक पूजा करना पूजा है और सबके कल्याणकी भावना करना पूजाफल है। . श्री सोमदेव द्वारा प्रतिपादित यह पूजाविधि वही है जो कि वर्तमान समयमें प्रचलित है । मात्र इसमें न तो वर्तमान समयमें प्रत्येक पूजाके प्रारम्भमें किये जानेवाले आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरणका कोई विधान किया है और न विसर्जन विधिका ही निर्देश किया है । यद्यपि यहाँपर जिन-प्रतिमा स्थापित करनेको स्थापना और उसमें साक्षात् जिनेन्द्रदेवकी कल्पना करनेको संनिधापन कहा है, इसलिए इससे आह्वानन, स्थापना और सन्निधीकरणका भाव अवश्य लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि इस विधिमें उस आचारका पूरी तरहसे समावेश नहीं होता, जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं । विचारणीय विषय इतना लिखनेके बाद हमें वर्तमान पूजाविधिमें प्रचलित दो-तीन बात का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है । प्रथम बात आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरणके विषयमें कहनी है। वर्तमान समयमें जितनी पूजाएं की जाती हैं, उनको प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम यह क्रिया की जाती है। जैन परम्परामें स्थापना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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