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________________ १७२: सिद्धान्ताचार्य पं. फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मूलाचारमें अन्य सब विधि षट्खण्डागमके अनुसार कही है। मात्र वहाँ अष्टांग नमस्कार दो बार करनेका ही विधान है-प्रथम सामायिकदण्डकके प्रारम्भमें और दूसरा त्थोस्सामिदण्डकके प्रारम्भमें । हरिवंशपुराणमें भी भूमिस्पर्शरूप दो ही अष्टांग नमस्कारोंका उल्लेख है-प्रथम सामायिकदण्डकके प्रारम्भमें और दूसरा त्थोस्सामिदण्डकके अन्तमें। इससे प्रतीत होता है कि पूर्व कालमें देशभेदसे कृतिकर्मके बाह्य आचारमें थोड़ा बहुत अन्तर भी प्रचलित रहा है । इतना अवश्य है कि देववन्दनाके समय सामायिकदण्डक, त्थोस्सामिदण्डक, पंचगुरुभक्ति और यथासम्भव समाधिभक्ति यथाविधि अवश्य पढ़ी जाती है। इस विषयकी विस्तृत चर्चा श्री पं० पन्नालालजी सोनीने क्रिया-कलापमेंकी है। विशेष जिज्ञासुओंको वहाँसे ज्ञान प्राप्त करके अपने कृतिकर्ममें संशोधन करनेमें उससे सहायता लेनी चाहिए। वर्तमान पूजाविधि __ वर्तमानमें जो दर्शनविधि और पूजाविधि प्रचलित है, उसमें वे सब गुण नहीं रहने पाये है, जो षट्खण्डागम आदिमें प्रतिदिन क्रिया-कर्ममें निदिष्ट किये गये हैं। अधिकतर श्रावक और त्यागीगण जिन्हें जितना अवकाश मिलता है, उसके अनुसार इस विधिको सम्पन्न करते हैं । व्रती श्रावकोंमें और साधुओंमें त्रिकाल देववन्दनाका नियम तो एक प्रकारसे उठ ही गया है। प्रतिक्रमण और आलोचना करनेकी विधि भी समाप्तप्राय ही है। यह कृतिकर्मका आवश्यक अंग है। फिर भी समग्र पूजाविधिको देखनेसे ऐसा अवश्य प्रतीत होता है कि उसमें पूर्वोक्त देववन्दना (कृतिकर्म) का समावेश अवश्य किया गया है । इतना अवश्य है कि कुछ आवश्यक क्रियाएँ छूट गयी हैं और कुछ नयी आ मिली हैं। कृतिकर्म प्रारम्भ करनेके पूर्व ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए उसे वर्तमान समयमें व्रती श्रावक भी नहीं करते । अव्रती श्रावकोंकी बात अलग है । सामायिक-दण्डक समग्र तो नहीं पर उसका प्रारम्भिक भाग पंच नमस्कार मन्त्र और चत्तारिदण्डकको पूजाविधिमें यथास्थान सम्मिलित कर लिया गया है । मात्र उसे पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण कर देते हैं । त्थोस्सामिदण्डक के स्थानमें :श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह स्वस्तिपाठ और पंचगुरुभक्तिके स्थानमें 'नित्याप्रकम्पा' यह स्वस्तिपाठ वर्तमान पूजाविधिमें सम्मिलित है, जो कृतिकर्मके अनुसार है। अर्थात् पहले 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह पढ़कर बादमें पंचगुरुभक्ति पढ़ी जाती है । किन्तु इनके बीचमें चैत्यभक्ति नहीं पढ़ी जाती। प्राचीन चैत्यभक्ति दो मिलती हैं-एक लघुचैत्यभक्ति और दूसरी बृहच्चैत्यभक्ति । इसमेंसे लघुचैत्यभवित पूजाविधिमें अवश्य सम्मिलित की गयी है, किन्तु वह अपने स्थानपर न होकर देव, शास्त्र और गुरु तथा बीस तीर्थकरकी पूजाके बादमें आती है । जिसे वर्तमानमें कृत्रिमाकृत्रिम जिनालय पूजा कहते हैं, वह लघुचैत्यभक्ति ही है । इसे पढ़कर इसका आलोचना पाठ भी पढ़ते हैं और अन्तमें 'अथ पौर्वाहिक' इत्यादि पढ़कर नौ बार णमोकार मन्त्रका जाप भी करते हैं । 'अथ पौर्वाहिक' इत्यादि पाठ द्वारा पंचगुरुभक्तिका कृत्य विज्ञापन किया गया है, इसलिए इसके आगे पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए, इसे कोई नहीं जानता। कृतिकर्मके अन्तमें पहले समाधिभक्ति पढ़ी जाती थी, उसे पूजाविधिके अन्तमें वर्तमान समयमें भी यथास्थान पढ़ते हैं। जिसे आजकल शान्तिपाठ कहा जाता है वह समाधिभक्ति ही है। अन्तर केवल इतना है कि समाधिभक्तिमें 'प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः' यहाँसे लेकर आगेका पाठ पढ़ा जाता था और शान्तिपाठमें 'शान्तिजिनं शशि'-इत्यादि पाठ भी सम्मिलित कर लिया गया है । इससे उद्देश्यमें भी अन्तर आ गया है। - इतना सब लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि वर्तमान पूजाविधिमें यद्यपि पुराने कृतिकर्भका समावेश किया गया है, पर कृत्यविज्ञापन, प्रतिक्रमण और आलोचना पाठ छोड़ दिये गये हैं। विधिमें जो एकरूपता थी वह भी नहीं रहने पायी है । देववन्दनाके समय हमें क्या कितना करना चाहिए यह कोई नहीं जानता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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