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________________ १७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ निक्षेपका बहुत अधिक महत्त्व है इसमें सन्देह नहीं। पण्डितप्रवर आगाधरजीने जिनाकारको प्रकट करनेवाली मूतिके न रहनेपर अक्षत आदिमें भी स्थापना करनेका विधान किया है। किन्तु जहाँ साक्षात् जिनप्रतिमा विराजमान है और उसके आलम्बनसे पंचपरमेष्ठी और चौबीस तीर्थकर आदिकी पूजा की जा सकती है, वहाँ क्या आह्वान आदि क्रियाका किया जाना उपयुक्त है ? देववन्दनाकी जो प्राचीन विधि उपलब्ध होती है, उसमें इसके लिए स्थान नहीं है, यह बात उस विधिके देखने से स्पष्टतः लक्ष्यमें आ जाती है। दूसरी बात विसर्जनके सम्बन्धमें कहनी है। विसर्जन आकार पूजाको स्वीकार करनेवालेका किया जाता है। किन्तु जैनधर्मके अनुसार कोई आता है और पूजामें अर्पण किये गये भागको स्वीकार करता है, इस मान्यताको रंचमात्र भी स्थान नहीं है। पाँच परमेष्ठीके स्वरूपका विचार करनेसे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । आगममें देववन्दनाकी जो विध बतलायी है, उसके अनुसार देववन्दना-सम्बन्धी कृतिकर्म अन्तमें समाधिभक्ति करनेपर सम्पन्न हो जाता है, इसलिए मनमें यह प्रश्न उठता है कि पूजाके अन्त में क्या विसर्जन करना आवश्यक है । इस समय जो विसर्जन पढ़ा जाता है उसके स्वरूपपर भी हमने विचार किया है । उससे मिलते-जुलते श्लोक ब्राह्मणधर्म के अनुसार किये जानेवाले क्रियाकाण्डमें भी पाये जाते हैं। तुलना कीजिए आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||२|| इनके स्थानपर ब्राह्मण धर्ममें ये श्लोक उपलब्ध होते हैं आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नेव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन । यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥२॥ 'ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि' इत्यादि श्लोक भी ब्राह्मण क्रियाविधिमें कुछ हेरफेरसे होना चाहिए ऐसा हमारा खयाल है । किन्तु तत्काल उपलब्ध न होनेसे वह नहीं दिया गया है। देवाः' इत्यादि श्लोक प्रतिष्ठापाठका है। पंचकल्याणककी समस्त क्रिया मुख्यतया चतुर्णिकायके देव सम्पन्न करते हैं, इसलिए पंचकल्याणक-प्रतिष्ठामें उनका आह्वान और स्थापना की जाती है तथा क्रियाविधिके सम्पन्न होनेपर उनका विसर्जन भी किया जाता है। इसलिए वहाँपर इस श्लोककी सार्थकता भी है । देवपूजामें इसकी रंचमात्र भी सार्थकता नहीं है। तीसरी बात अभिषेकके विषयमें कहनी है। सामान्यतः अभिषेकके विषयमें दो मत पाये जाते हैं। एक मत यह है कि जिन-प्रतिमाकी पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा हो जाती है. इसलिए उसका अभिषेक जन्य-कल्याणकका प्रतीक नहीं हो सकता । दूसरे मतके अनुसार अभिषेक जन्मकल्याणकका प्रतीक माना गया है। सोमदेवसूरि इस दूसरे मतके अनुसर्ता जान पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने अभिषेक-विधिका विधान करते समय वह सब क्रिया बतलायी है, जो जन्माभिषेकके समय होती है । फिर भी यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है कि यदि अभिषेक जन्मकल्याणकके समय किये गये अभिषेकका प्रतीक है तो इसमें पंचामृताभिषेक कहाँसे आ गया। १. सागारधर्मामृत, अध्याय २, श्लोक ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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