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________________ चतुर्थ खण्ड:१३३ चार वर्णों के कार्योंका निर्देश करते हुए वहाँ यह श्लोक आया है ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्यायाच्छूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ ---आ० पु०, पर्व ३८ श्लोक ४६ जिन्होंने व्रतोंको स्वीकार किया है वे ब्राह्मण हैं, जो आजीविकाके लिए शस्त्र स्वीकार करते हैं वे क्षत्रिय हैं, जो न्यायमार्गसे अर्थार्जन करते हैं वे वैश्य हैं और जो जघन्य वृत्ति स्वीकार करते हैं वे शूद्र हैं। इससे भी यही ज्ञात होता है कि ब्राह्मण वर्णका मुख्य आगर आजीविका नहीं है, किन्तु व्रतोंका स्वीकार करना है। तभी तो पद्मचरितमें कहा है-- व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥११,२०।। इस श्लोकमें रविषेण आचार्यने कितनी बड़ी बात कही है। इससे जैनधर्मकी आत्मा निखर उठती है। वे इसमें स्पष्ट रूपसे उस चाण्डाल (चाण्डाल कमसे आजीविका करने वाले) को भी ब्राह्मण रूपसे स्वीकार करते हैं जो जीवनमें व्रतोंको स्वीकार करता है। जैनधर्मके अनुसार वर्ण व्यवस्थाका रहस्य क्या है यह इसमें उद्घाटित करके बतलाया गया है। कोई भी मनुष्य आजीविका क्षत्रिय, वैश्य, शद्र किसी वर्णकी क्यों न करता हो यदि वह व्रतोंका पालन करने लगता है, तो वह वर्णसे ब्राह्मण हो जाता है यह इसका तात्पर्य है। मनुस्मृतिमें ब्राह्मणके अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-ये चार मुख्य कार्य बतलाये हैं । अन्यत्र आदिपुराणमें भी इन कार्योंका निर्देश किया गया है। किन्तु इनका पूर्वोल्लेखोंसे समर्थन नहीं होता । वस्तुतः ब्राह्मण वर्णकी स्थापना आजीविकाकी प्रधानतासे न की जाकर जीवनमें व्रतोंका महत्व प्रस्थापित करनेके लिए ही की गई थी। आगे चल कर ब्राह्मण वर्ण स्वयं एक जाति बन गई। यह वैदिक धर्मकी ही कृपा समझिये। २. क्षत्रिय वर्ण दूसरा कारण अभिरक्षा है। किसी भी देशमें ऐसे लोगोंकी बड़ी आवश्यकता होती है जो परचक्रसे देशकी रक्षा करते हुए समाज में सुव्यवस्था बनाये रखते हैं । अभिरक्षा शब्द द्वारा कार्यकी सूचना की गई है। यह कार्य क्षत्रिय वर्णकी मुख्य पहिचान है। इसके अनुसार शासन, सेना और पुलिसमें लगे हुए मनुष्य क्षत्रिय वर्णके माने जा सकते हैं। साधारणतः यह समझा जाता है कि शस्त्र धारण करना और मार-काट करना क्षत्रियोंका काम है। किन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे इस बातको भुला देते हैं कि शस्त्र-विद्यामें निपुणता प्राप्त करना तथा देश और समाजपर आपत्ति आनेपर उसके वारण का उद्यम करना यह किसी एक वर्णका काम नहीं है। वर्णमें मुख्यता आजीविकाकी रहती है। यदि हम यह कहें कि वर्ण आजीविकाका पर्यायवाची है, तो कोई अत्युक्ति न होगी। जिस समय आदिनाथ जन्मे थे, उस समय उनका कोई वर्ण न था; किन्तु जब उन्होंने प्रजाकी रक्षा द्वारा अपनी आजीविका करना निश्चित किया और आजीविकाके आधार से मनुष्योंको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया, तब वे स्वयं अपनेको क्षत्रिय वर्णका कहने लगे। अभिप्राय यह है कि यदि कोई पुलिस, सेना और शासनके प्रबन्धमें लग कर इस द्वारा अपनी आजीविका करता है, तो वह क्षत्रिय वर्णका कहा जाता है, अन्यथा नहीं। क्षत्रियोंका वर्ण अर्थात् कार्य बतलाते हुए महाकवि कालिदास रघुवंशमें राजा दिलीपके मुखसे क्या कहलाते हैं, यह उन्हींके शब्दोंमें सुनिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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