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________________ १३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ़ः । अर्थात् क्षत्रिय शब्द पृथिवी पर, आपत्तिसे रक्षा करना, इस अर्थमें रूढ़ है। इससे स्पष्ट है कि बहत प्राचीन कालकी बात तो जाने दीजिए, महाकवि कालिदासके कालमें क्षत्रिय नामकी कोई जाति विशेष नहीं मानी जाती थी। किन्तु जो अभिरक्षा द्वारा अपनी आजीविका करते थे, वे ही क्षत्रिय कहे जाते थे। क्षत्रिय वर्णके कार्यमें अभिरक्षा शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है। शासनकी नीति क्या हो यह इस शब्द द्वारा स्पष्ट किया गया है। आक्रमण और सुरक्षा-ये शासन-व्यवस्थाके दो मुख्य अंग माने जात हैं । किन्तु आक्रमण करना यह क्षत्रियों का काम न होकर मात्र परचक्रसे देशकी रक्षा करना और देशके भीतर सुव्यवस्था बनाये रखना उनका काम है यह 'अभिरक्षा' शब्दसे व्यक्त होता है । आजकल राजनीतिमें अहिंसाके प्रवेशका श्रेय महात्मा गांधीको दिया जाता है। यह हम मानते है कि महात्मा गांधीने आजकी दूषित राजनीतिमें एक बहुत बड़ी क्रांति की है । इससे न केवल भारतवर्षका मस्तक ऊँचा हआ है; अपितु विश्वको बड़ी राहत मिली है। किन्तु यह कोई नई चीज नहीं है । हजारों वर्ष पहले जैन-शासकोंकी यही नीति रही है। भारतने दूसरे देशोंपर कभी आक्रमण नहीं किया, मात्र आक्रमणसे इस देशकी रक्षा की, यह इसी नीतिका सुन्दर फल है। आज विश्व इस चीजको समझ रहा है और वह इसके लिए भारतकी प्रशंसा भी करने लगा है। ३. वैश्य वर्ण तीसरा कारण कृषि है। प्रत्येक देशकी अभिवृद्धिका मख्य कारण कृषि, वाणिज्य, उपयोगी पशुओंका पालन, और उनका क्रय-विक्रय करना माना गया है। कार्य विभाजनके साथ यह कार्य करना जिन्होंने स्वीकार किया था, उन्हें वैश्य संज्ञा दी गई थी। उक्त कार्य वैश्य वर्णकी मुख्य पहिचान है। इस समय भारतवर्षमें वैश्य वर्ण एक स्वतंत्र जाति मान ली गई है और उसका मुख्य काम दलाली करना रह गया है। कृषि और उपयोगी पशुओंका पालन करना यह काम उसने कभीका छोड़ दिया है । इन दोनों कार्योंको करने वाले अब प्रायः शद्र माने जाते हैं । इसी नीतिका परिणाम है कि देशमें आर्थिक विषमता अपना मुँह बाये खड़ी है । कृषक वर्ग देशकी रीढ़ है। "उसके हाथ में ही व्यापार रहना चाहिए", यह हमारे देशकी पुरानी व्यवस्था थी । आजकल वह व्यवस्था सर्वथा लुप्त हो गई है, जिससे न केवल भारतवर्ष दुःखी है; अपितु विश्वमें त्राहि-त्राहि मची हुई है। उत्पादन और वितरणका परस्पर सम्बन्ध है। उत्पादन एकके हाथमें हो और वितरण दूसरेके हाथमें, यह परम्परा समाज-व्यवस्थाको नष्ट करनेके लिए घुनका काम करती है । हम रूसकी आर्थिक प्रणालीको दोष दे सकते हैं: पर बारीकीसे देखनेपर विदित होता है कि उसमें इसी तत्त्वकी प्रकारान्तरसे प्रतिष्ठा की गई है। इसमें सन्देह नहीं कि इससे किसी हद तक व्यक्तिको स्वतंत्रताका घात होता है और व्यक्तिको आर्थिक दष्टिकोणसे समष्टिके अधीन रहनेके लिए बाध्य होना पड़ता है. किन्तु वर्तमान उत्पादन और वितरणकी प्रणालीके चाल रहते इस दोषके प्रक्षालनका अन्य कोई उपाय भी नहीं है। प्राचीन कालमें कृषकको ही सर्वेसर्वा माना गया था। वही उत्पादक था और वही वितरक । उस समय आजके समान कृषकोंसे व्यापारियोंका स्वतंत्र वर्ग न था । यह बात इसीसे स्पष्ट है कि उस समय कृषि और वणिज एक ही व्यक्तिके हाथमें रखे गये थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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