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________________ १३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इनमें प्रारम्भके दो सामान्य कारण हैं और अन्तके चार क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के सूचक हैं । सर्वप्रथम आचार्य क्रियाविशेषको चार वर्णोंका हेतु कहना चाहते हैं, परन्तु उन्हें भय है कि कहीं कोई इस आधारसे मनुष्योंके वास्तविक भेद न मान बैठे, इसलिए वे कहते हैं कि मनुष्योंको ऐसा कहना कि 'यह अमुक वर्णका है, यह अमुक वर्णका है' व्यवहार मात्र है। लोकमें ब्राह्मण आदि शब्दके द्वारा कथन करनेकी रूढ़ि है-कोई ब्राह्मण कहलाता है और कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र । इसके सिवा इस कथनकी अन्य कोई मौलिक विशेषता नहीं है । यदि थोड़ी देरको यह मान भी लें कि व्यवहारमें इन नामोंके प्रचलित होनेके कोई अन्य कारण अवश्य है, तो वे दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प इनके सिवा और हो ही क्या सकते हैं । यही कारण है कि प्राचीन कालमें इन क्रियाओंके आधारसे ब्राह्मण आदि चार वर्णोका नामकरण किया गया था। १ ब्राह्मण वर्ण पहला कारण दया है। यह अहिंसाका प्रतीक है। अहिंसा आदि पाँच व्रतोंको स्वीकार कर उनका पालन करना ही ब्राह्मण वर्ण की मुख्य पहिचान है। 'ब्राह्मण कौन' इसका निर्देश प्राचीन साहित्यमें विस्तृत आधारोंपर किया है ? इसकी व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनमें कहा है तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं ॥ जो त्रस-स्थावर सभी प्राणियोंको भली भाँति जानकर उनकी मन, वचन और कायसे कभी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ।। जो क्रोधसे, हास्यसे, लोभसे अथवा भयसे असत्य नहीं बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिण्हाइ अदत्त जे, तं वयं बूम माहणं ॥ सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, भले ही फिर वह थोड़ा हो या ज्यादा, जो बिना दिये नहीं लेता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायवक्केणं, तं वयं बूम माहणं ॥ जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकारके मैथुनका मन, वचन और शरीरसे कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जहा पोम्म जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ॥ एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।। जिस प्रकार कमल जलमें उत्पन्न होकर भी जलसे लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार जो संसारमें रह कर भी काम भोगोंसे सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। आदिपुराणमें भी ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिका सुस्पष्ट निर्देश किया है । वहाँ बतलाया है कि भरत चक्रवर्तीने तीन वर्णके व्रती श्रावकोंको ब्राह्मण वर्णका कहा था और तभीसे ब्राह्मण वर्ण लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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