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________________ चतुर्थ खण्ड : १३१ रहती । वे सोचते हैं कि इस तरह जैन मन्दिर उन कानूनोंसे अपने आप बरी हो जाते हैं; जो कथित अस्पृश्योंको मन्दिर प्रवेशका अधिकार देते हैं। बात साफ है । जैन हिन्दु नहीं है यह कहना तो उनका बहाना मात्र है। वास्तवमें वे केवल इतना हो चाहते हैं कि जैन मंदिरोंमें अस्पृश्यता पूर्ववत् कायम बनी रहे । वे ऐसा क्यों चाहते हैं, इसका कारण बहुत स्पष्ट है। किन्तु हम उसमें जाना नहीं चाहते । हमारे सामने मुख्य प्रश्न संस्कृति का है। आगम इस विषयमें क्या कहता है, हमें तो यहाँ इसी बातका निर्णय करना है। भारतको दो प्रमुख संस्कृतियाँ ___उसमें भी सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि वर्ण क्या वस्तु है और उसकी स्थापना यहाँ किन परिस्थितियों में हुई? यह तो सर्वविदित है कि भारतवर्षमें श्रमण और वैदिक ये दो संस्कृतियाँ मुख्य है । इन दोनोंके आचार विचार और क्रिया-कलापमें महान् अन्तर है। वैदिक-संस्कृति मुख्यरूपसे ईश्वरवादियोंकी परम्परा है और श्रमण-संस्कृति स्वावलम्बियोंकी परम्परा है। इन दोनोंमें पूर्व पश्चिमका अन्तर है । पतंजलि ऋषिने हजारों वर्ष पहले अपने भाष्यमें इसे स्वीकार किया है। वे इन दोनोंके विरोधको अहि-नकुलके समकक्ष का मानते हैं । 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैन मन्दिरम्' इत्यादि वचन इसी विरोधके सूचक हैं । इसलिए जब कभी हम सांस्कृतिक दृष्टिसे विचार करते हैं, तब हमें इनके अन्तरको सामने रखना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा पदार्थका निर्णय करने में न केवल कठिनाई आती है, अपितु दिशाभ्रम होनेका भय रहता है। वर्ण शब्दकी व्याख्या वर्ण क्या है यह प्रश्न बहुत कठिन नहीं है। इसका अर्थ आकार या रूप रंग होता है। प्राचीन ऋषियोंने इसी अर्थमें इसका प्रयोग किया था। उन्होंने मनुष्योंके रूप-रंगको जानकारीके लिए उनकी आजीविका और चर्याको मुख्य साधन माना था। मनुष्य जन्मसे अपनी आजीविका लेकर नहीं आता। किन्तु वह जिन परिस्थितियों में बढ़ता है और उसे अपने विकासके जैसे साधन उपलब्ध होते हैं, उनके आधारसे उसकी आजीविका निश्चित होती है । डा० अम्बेडकर आजकी कथित 'महार' जातिमें जन्मे हैं । 'महार' दक्षिणमें एक अछूत जाति है । इनके माता पिता इसी जातिके एक अंग थे। किन्तु आज वे कानूनके महान् पण्डित हैं। भारतको उनपर नाज है। वे भारतीय संविधानके मुख्य कर्ता-धर्ता हैं। उनकी बुद्धि और प्रतिभाका विश्वने लोहा माना है। यों तो वैदिकोंकी पुरानी व्यवस्थाके अनुसार वे अस्पृश्य ठहरते हैं पर आज वे किसी भी उच्चकोटिके ब्राह्मणसे हीनकोटिके नहीं माने जा सकते। इस तथ्यको प्राचीन ऋषियोंने भी अनुभव किया था। तभी तो उन्होंने कहा था क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्राहयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरोवदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ।। -वरांग चरित सर्ग २५ श्लोक ११ प्राचीन शिष्ट पुरुषोंने चार वणोंका जिन कारणों से प्रतिपादन किया था, उन्हींका इस इलोकमें सुस्पष्ट रूपसे वर्गीय रण किया गया है। वे कारण छह है-१. क्रियाविशेष, २. व्यवहार मात्र, ३. दया, ४. प्राणियोंकी रक्षा, ५. कृषि और ६. शिल्प । श्लोकके अन्तिम चरणमें बतलाया है कि चार वर्णों की सत्ता इन्हीं कारणोंसे मानी जा सकती है, अन्य किसी भी प्रकारसे चार वर्ण नहीं हो सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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