SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ लोगोंके पीछे लग गई है जो या तो ढोंगी हैं या आलसी । वास्तवमें हमें साधचर्याके उक्त नियमोंका बारीकीसे अध्ययन करना चाहिये । उनसे एकमात्र स्वालम्बनकी ही शिक्षा मिलती है । भला विचारिये तो कि व्यक्तिस्वातन्त्र्यको प्रतिष्ठित करनेका इससे उत्तम मार्ग और क्या हो सकता है ? श्रमण भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरोंने उक्त चर्याको अपने जीवनमें अच्छी तरहसे उतारा था। उन्होंने अपने अनुयायी साधुओंको भी एकमात्र इसी चर्याकी शिक्षा दी थी । सम्भवतः बुद्धदेवसे उनका इसी बातमें मतभेद था । बुद्धदेव मध्यम मार्गके पक्षपाती थे। उनकी शिक्षाओंसे ज्ञात होता है कि उन्हें वैदिक धर्म और श्रमण धर्मके मध्यका मार्ग अधिक पसन्द था । पर उनका यह कार्य महावीरकी आत्माको टससे मस न कर सका। वे दृढ़ निश्चयी और कठोर अनुशासनके पूर्ण पक्षपाती थे । कैवल्य लाभके बाद तो उनकी आत्मा और भी निखर उठी थी। उन्हें सम्यक् प्रकारसे ज्ञात था कि मात्र इस मार्गके अनुसरण करनेसे ही संसारी प्राणी मुक्तिका अधिकारी होता है । इसलिये उन्होंने अपने अनुयायी साधुओंको न केवल परिग्रहका पूर्णरूपसे त्याग करनेका उपदेश दिया था, अपितु आत्मसंशोधनकी दृष्टिसे इसका कठोरतासे पालन भी कराया था। परिग्रहके त्यागका दूसरा मार्ग है गृहस्थधर्म । गृहस्थका अर्थ है घरमें रहनेवाला । घर उपलक्षण है । इससे वे सभी भौतिक या दूसरे साधन लिये गये हैं जिनके बिना जीवनयापन करने में गहस्थ अपनेको असमर्थ अनुभव करता है । वह जीवनकी की कमजोरीवश बाह्य-साधनोंका अवलम्बन तो लेता है, पर उनका परिमाण करता है । इसे गृहस्थका परिग्रहपरिमाणव्रत कहते हैं। जैन-शास्त्रोंमें इसकी विस्तृत चर्चा देखनेको मिलती है । वहाँ इस व्रतके व्यावहारिक उपयोगका सावधानीपूर्वक सर्वांग विचार किया गया है । प्राचीन कालमें बाह्य-परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भाण्ड इन दश भागोंमें विभक्त किया गया था। यह विभाग उस समयका है जब देशमें दास-दासी प्रथा प्रचलित थी। यह भी हो सकता है कि जिस प्रदेशमें दास-दासी प्रथा चालू हो उसे ध्यानमें रखकर ये भेद किये गये हों । जैन धर्मके अनुसार प्रत्येक गृहस्थ को इस दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना पड़ता है। वह आवश्यकतासे अधिकका संचय नहीं कर सकता । आवश्यकता तात्कालिक रहन-सहनसे आँकी जाती है। प्रथम शर्त यह है कि कोई भी व्यक्ति अन्याय मार्गसे आजीविका नहीं कर सकता। न्यायवृत्तिका अर्थ राज्यके नियमोंके अनुसार अर्थका उपार्जन करना तो है ही। साथ ही आवश्यकतासे अधिकका संचय न करना भी इसमें गभित है । इसके सिवा आचार-ग्रन्थोंमें कुछ ऐसे भी नियम बतलाये हैं, जिनसे व्यक्तिकी इच्छाको सीमित करनेमें सहायता मिलती है । प्रथम तो प्रत्येक गृहस्थको यह नियम करना पड़ता है कि वह यावज्जीवन आजीविका निमित्त या इसी प्रकार दूसरे कार्य निमित्त अमुक क्षेत्रके बाहर नहीं जायेगा । साथ ही उसे यह भी नियम करना पड़ता है कि वह अमक समय तक इतने क्षेत्रके बाहर नहीं जायगा । प्रथम प्रकारकी मर्यादाका क्षेत्र विस्तत होता है और दूसरे प्रकारकी मर्यादा अमुक समयके लिये उस क्षेत्रको संकुचित करती है। इससे यावज्जीवन तक क्षेत्रकी मर्यादा विस्तृत होने पर भी प्रतिदिनका व्यवहारक्षेत्र सीमित होता रहता है । यद्यपि वर्तमानमें इस पद्धतिके अनुसार गृहस्थोंका वर्तन नहीं पाया जाता है और न राष्ट्रका ही इस ओर ध्यान है तथापि इससे इस पद्धतिको अव्यावहारिक नहीं ठहराया जा सकता । वस्तुतः समाजवाद और पूँजीवादकी ऐकान्तिक बुराईको दूर कर व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी प्रतिष्ठा करनेवाला यही एक ऐसा मार्ग है, जिसे जीवनमें स्वीकार किये बिना विश्वशान्तिकी कल्पना साकार रूप नहीं ले सकती । अभी विश्वशान्ति सम्मेलनके निमित्तसे भारतमें देश-विदेशके अनेक प्रतिनिधि इकठे हुए थे । यों तो ये सभी प्रतिनिधि सेवाभावी और विश्वशान्तिके इच्छुक थे। किन्तु इनमेंसे विश्वशान्तिकी प्रेरणादायिनी शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy