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________________ चतुर्थ खण्ड : १२७ यदि किसीसे प्राप्तकी जा सकती है तो वे थे स्वीडन निवासी स्वेन एरिक राइवर्ग । इन्होंने अपने जीवनको एक प्रकारसे अपरिग्रही बना लिया है । इसका वे कठोरतापूर्वक पालन करते हैं। अन्य प्रतिनिधियोंके साथ इन्हें भी ताजमहल होटलमें ठहराया गया था। यह देख इन्हें बड़ा आश्चर्य हआ। परिणामस्वरूप ठहरना अस्वीकार कर दिया। वे वहाँ जाकर ठहरे जहाँ भारतकी सच्ची आत्मा निवास करती है। उस समय वहाँ उन्होंने जो उद्गार प्रकट किये थे वे अन्धकारमें भटकने वाले विश्वको प्रकाशका काम देते हैं। वे कहते हैं _ 'हम उस भारतको देखने आये हैं जहाँ बैठकर विश्वका शान्तिदूत शान्तिसूत्रका संचालन करता था।' अपरिग्रहवादकी व्यावहारिक शिक्षाका इससे बढ़ा प्रमाण और क्या हो सकता है । सन्त परम्परा और अपरिग्रहवाद जहाँ तक जैन तीर्थङ्करोंकी चर्याका सम्बन्ध है उन्होंने परिग्रहको कभी भी अपने पास नहीं फटकने दिया था। उनकी परम वीतराग, शान्तिदायिनी नग्न-मुद्रा आज भी विश्वके संतप्त हृदयको शीतलता प्रदान करती है। वह मौनभावसे एकमात्र यही शिक्षा देती है उत्तम शौच सर्व जग जाना | लोभ पापको बाप बखाना ॥ आशाफांस महा दुखदानी । सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।। x उत्तम आकिंचन गुण जानौ । परिग्रह चिन्ता दुख ही मानौ ।। फांस तनक सी तन में साले । चाह लँगोटी की दुख भाले ।। साधारणतः हम देखते हैं कि विश्वका बहुभाग जैन तीर्थङ्करोंकी इस आदर्श गरिमाको नहीं समझ सका है। अधिकतर व्यक्ति उनकी नग्न-मूर्ति देखकर विकारका अनुभव करते हैं । हम तो इस सम्बन्धमें इतना ही कहेंगे कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मरति देखी तिन तैसो ।" फिर भी हमारी समझसे यह उत्तर सही होकर भी अपूर्ण है । मुख्य झगड़ा आदर्शका है, इसलिए हम इस तत्त्वको भीतर घुस कर छानबीन करना चाहेंगे । थप्पड़का उत्तर थप्पड़से देनेमें कोई लाभ नहीं है । देखना यह है कि मात्र भौतिक साधनोंका अवलम्बन लेना ही व्यक्तिका जीवन है या उसका वास्तविक जीवन इससे कोई भिन्न वस्तु है । जहाँ तक सन्तोंका अनुभव है उन्होंने सदा ही बाह्य-साधनोंका स्वीकार करना जीवनकी सबसे बड़ी कमजोरी माना है । तीर्थंकरोंके समान जीसस क्राइस्टने भी इस सत्यको समझा था । तभी तो उन्होंने कहा था कि सुईके छेदसे ऊँट जा सकेगा, लेकिन पैसेका मोह रखनेवाला अहिंसाका साक्षात्कार नहीं कर सकेगा, चाहे नाम उसका वह लेता रहे।' बहुत दूरकी बात जाने दीजिये । महात्मा गांधीकी जीवनचर्याका अध्ययन करनेसे ही यह बात साफ हो जाती है कि जीवनको पूर्ण स्वावलम्बी और निर्विकार बनानेके लिए बाह्य आलम्बनका त्याग करना परम आवश्यक है। उन्होंने इस सत्यको छिपानेका भी प्रयत्न नहीं किया। अपरिग्रहवादकी महत्ता पर किये गये उनके विवेचनका सार है नग्नता आत्माके निर्विकारीपनका चिह्न है। निर्विकारी सदा नग्न रहता है। उसे आच्छादनकी क्या आवश्यकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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