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________________ चतुर्थ खण्ड : १२५ साधनोंके व्यामोहमें उलझा रहे यह नहीं हो सकता। जो राष्ट्र या व्यक्ति स्वतन्त्र होना चाहता है, उसे अपने दैनंदिनके जीवनमें स्वावलम्बनका व्रत स्वीकार करना ही होगा। अपरिग्रहवाद इसके सिवा और क्या सिखाता है । जो अपना नहीं है उसके परिग्रहमें आसक्ति मत करो, यही तो उसकी शिक्षा है ।। श्रमण भगवान् महावीर अपरिग्रहवादके मर्तमान स्वरूप थे। उन्होंने अपने जीवनमें ऐसी कोई गाँठ बाँध कर नहीं रखी थी जो कि उन्हें पीछेकी ओर धकेलती हो। वे जाति, लिंग, वय, स्वदेश, विदेश आदि सब प्रकारके विकल्पोंसे परे थे । उनकी एक मात्र शिक्षा थी कि पर पर है । उसका स्वीकार जीवनके पतनका कारण है। अपरिग्रहवादको व्यावहारिक शिक्षा अब देखना यह है कि अपरिग्रहवादके सिद्धान्तको अपने व्यावहारिक जीवनमें कैसे उतारा जाय । अपरिग्रहका अर्थ है परिग्रहका अभाव । परिग्रहके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें आभ्यन्तरपरिग्रह मुख्य है । इसका दूसरा नाम मूर्छा है। बाह्य-परिग्रह इसके सद्भावमें होता है। इसीसे अधिकतर विचारकोंने मूर्छाको ही परिग्रह कहा है। मूर्छा यह समस्त दुर्गुणोंका मूल है और व्यक्तिस्वातन्त्र्यका अपहरण करनेवाली है। किसी व्यक्ति या राष्ट्रको अपना उत्थान करनेके लिये इसका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। परिग्रहत्यागके दो मार्ग है--साधुमार्ग और गृहस्थमार्ग । साधु वह होता है जो अपने दैनंदिनके जीवनमें पूर्ण स्वावलम्बनकी प्रतिज्ञा कर भौतिक साधनोंका मात्र शरीरकी आवश्यकताकी पूर्तिके लिये कमसे कम उपयोग करता है । वह भौतिक साधनोंका न तो अर्जन करता है और न संचय ही। उपयोग ऐसे साधनोंका करता है जो सार्वजनिक होते हैं। उदाहरणार्थ वह ऐसे मकान, मठ या गफा आदिमें उठता-बैठता है जहाँ प्राणीमात्रको आने-जानेकी किसी प्रकारकी रुकावट नहीं होती है। भोजन भी किसी गृहस्थके स्वेच्छासे देनेपर ही लेता है। सो भी दिनमें एक बार लेता है । केशोंके बढ़ जानेपर उनका अपने हाथसे उत्पाटन करता है। इसके लिये कंची आदिका उपयोग नहीं करता। यात्रा पैदल करता है। सवारीका उपयोग नहीं करता। सब ऋतुओंमें नग्न रहता है। वस्त्रको मूर्छाका कारण जानकर उसका पूर्णरूपसे त्याग कर देता है। गृहस्थोंसे अधिक ममता न बढ़ जाय इसलिये आवश्यकतानुसार नगर में अधिकसे अधिक पाँच दिन और ग्राममें एक दिन ही ठहरता है। उसमें भी नगर या ग्रामके बाहर ही ठहरता है। मात्र भोजनके लिये नगर या ग्राममें आता-जाता है। भोजनके लिये पात्रका उपयोग नहीं करता। दोनों हाथोंकी अंजुलि बनाकर उससे भोजनका काम सम्पन्न करता है। भोजन खड़े-खड़े लेता है और इसके लिये गृहस्थोंको उत्साहित नहीं करता । साधुको केवल तीन उपकरण रखनेकी अनुज्ञा है-पीछी, कमण्डलु और शास्त्र । पीछी भूमिशोधनके काम आती है, कमण्डलु मल-मूत्रके विसर्जन करने पर शुद्धि के काम आता है और शास्त्र ज्ञानान का साधन है। अधिकतर लोगोंको साधकी यह चर्या व्यवहारमें अटपटी सी दिखाई देती है। वे इसे निठल्ले लोगोंकी व्यर्थकी उठाठेव मानते है । हम यह जानते हैं कि साधुसंस्था दूषित हो गई है और ऐसे लोगोंकी कमी नहीं जो मात्र पेट भरनेके लिये साधु बनते हैं । पर इससे साधुमार्गकी व्यर्थता नहीं सिद्ध की जा सकती है। साधुका जीवनयापन करना अध्यात्मशोधका सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । जो जीवन में सच्चा साधु है वह समाजसे जितना लेता है उससे कहीं अधिक देता है। समाजने इस संस्थाके महत्त्वको भुला दिया है या वह ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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