SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ जोरीवश आवश्यकतानुसार बाह्य साधनोंका अवलम्बन लेना एक बात है तथा इसके विपरीत बाह्य-साधनोंको ही सब कुछ मान बैठना दूसरी बात है । अर्थ और विवेक पूंजी चाहे व्यक्तिके हाथमें रहे या राष्ट्रके हाथमें वह एकमात्र अनर्थ परम्पराकी जननी है । अर्थकी गरमी सबसे बड़ी गरमी है। जिसके पास यह पहँचता है उसे ही पथभ्रष्ट कर देता है। एक ही वस्तु थी जो व्यक्ति और राष्ट्रको इसकी गरमीसे बचा सकती थी और वह था विवेक । किन्तु इस समय क्या व्यक्ति और क्या राष्ट्र दोनों ही अपने-अपने स्वरूपको भूले हुए हैं। दोनों ही उपादनकी वृद्धि द्वारा वार्षिक आयके बढ़ानेकी फिकरमें हैं । विश्वका यही हाल है । इससे स्वार्थपरतामें वृद्धि होकर मानवताका ह्रास हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ पैसेकी लट दिखाई देती है। समस्त धर्म-कर्म इसीमें समाया हआ है। जो धार्मिक संस्थाएं इसकी गरमीको कम करनेके प्रचारके लिए स्थापित की जाती हैं वे धनिकोंकी जीहुजूर बनी हुई है। व्यक्ति धर्ममें मूर्छासे काम न ले। धर्म मात्र आत्मशुद्धि का साधन बना रहे । जो व्यक्ति राग,द्वेष और मोह पर विजय पानेमें असमर्थ हैं वे तत्कालीन परिस्थितिके अनुसार सहयोगमलक अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था बना लें। किन्तु इतना ध्यान रखें कि इस द्वारा किसी व्यक्तिको स्वतन्त्रताका अपहरण न होने पावे। सन्त-परम्पराके इस उपदेशकी तरफ आज किसीका ध्यान नहीं है। सब अपने-अपने पद और स्वरूपको भूले हुए हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इसकी जड़ में एक मात्र मूर्छा ही काम कर रही है । पूंजीवादी राष्ट्रोंमें यह जितनी मात्रामें देखी जाती है, समाजवादी राष्ट्रोंमें वह उससे कम नहीं है। रोगका अचूक निदान मूर्छा मुर्छाको कम करनेका मार्ग यह था कि उत्पादनका विकेन्द्रीकरण किया जाय । जहाँ हजारों मनुष्य मिलकर एक साथ काम करते हैं ऐसे कल-कारखाने न खोले जायँ । राष्ट्र के लिए जितने मालकी आवश्यकता है उतना ही उत्पादन किया जाय। जिन वस्तुओंके बिना दूसरे राष्ट्रोंका काम नहीं चलता हो वे वस्तुएँ ही उन राष्ट्रोंको दी जायँ और बदलेमें ऐसी वस्तुएँ ही स्वीकार की जायँ जिनके बिना यहाँका काम नहीं चलता। भौतिकविज्ञानको विशेष प्रोत्साहन न देकर आध्यात्मिकविज्ञानको ही प्रमुखता दी जाय। संहारक अस्त्रोंका निर्माण सर्वथा बन्द कर दिया जाय । रक्षाकी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की जाय । किन्तु इस समय सब काम इससे विपरीत हो रहे हैं और फिर रट लगाई जाती है कि विश्व में स्थायी शान्तिकी स्थापना होनी चाहिए । शान्ति आत्माका परिणाम है । वह भौतिक-साधनोंके बलपर नहीं प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति जिस तरह राष्ट्रकी इकाई है, उसी प्रकार उसकी मूर्छा भी राष्ट्रीय मूर्छाका अंग है और राष्ट्रीय मूर्छा विश्व मूर्छाका ही अंग है । यहाँ राष्ट्रीय मूर्छा और राष्ट्रीय प्रेमका भेद स्पष्ट समझ लेना चाहिए । मूर्छाका अर्थ है जीवन संशोधनके विरुद्ध पड़नेवाले साधनोंमें अपनत्वकी भावना। जिस भावनाके कारण व्यक्ति मात्र भौतिक इकाईमें सब सुख साधनोंको बटोरनेका प्रयत्न करता है वह मूर्छा ही है। व्यक्तियोंकी यही संकुचित स्वार्थमय ममता विकसित होकर राष्ट्रीय मूर्छा या स्वार्थोंको जन्म देती है, प्राचीन भारतीय ऋषियोंने राष्ट्रीय विकासमें व्यक्तिके शद्ध विकासकी शर्त इसीलिए रखी थी। पश्चिमी राष्ट राष्ट्रीयताकी झोंकमें चरित्र विकासको महत्त्व नहीं देते, इसलिए मुट्ठीभर राजनीतिक अपने राजनीतिक प्रभावसे जब चाहें समूचे विश्वको विक्षुब्ध कर सकते हैं। पिछले दो महायुद्ध इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। प्रश्न है इस मूर्छा-संकुचित राष्ट्रीय स्वार्थका उन्मूलन कैसे हो ? व्यक्तित्व या राष्ट्रीयताकी ओटमें भौतिक आकांक्षाओंका विस्तार कर क्या विश्वमें सुख-शान्ति स्थापित की जा सकती है? पूँजीवाद व्यक्तिकी आकांक्षा और उसकी पूर्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy