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________________ चतुर्थ खण्ड : १२१ राज्यका विकास साधारणतः प्रत्येक जीवधारीके लिए जीवन उद्धारके समान आजीविकाका प्रश्न अत्यन्त आवश्यक माना गया है । इस भावको व्यक्त करते हुए एक कविने कहा है कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार । एक जीवकी जीविका दुतिय जीव उद्धार ॥ भौतिक शरीरके स्थायित्वके लिए आजीविका मुख्य है और आत्मोद्धारके लिए जीवन संशोधनकी कलामें अभिज्ञता प्राप्तकर तदनकल आचरण करना मख्य है। प्राचीन नियम यह था कि मनष्य एक ही मार्गसे आजीविका करे । समाजके संधारणके लिये इस नियमका होना अत्यन्त आवश्यक था। किन्तु धीरे-धीरे इस नियममें परिवर्तन हुआ और कथित उच्च वर्ग के मनुष्योंको यह अधिकार दिया गया कि वे दूसरे मार्गोंसे भी आजीविका कर सकते हैं। यान्त्रिक युग के बाद तो इस व्यवस्थाका यह गुण कि 'एक व्यक्ति पूँजीका अधिक संचय न कर सके और दूसरा व्यक्ति उसके अभावमें भूखों न मर सके' नष्ट हो गया है। राज्यसे यह आशाकी जा सकती थी कि वह ऐसी स्थितिके निर्माण करने में अपनी शक्तिका उपयोग करे जिससे प्राचीन आर्थिक व्यवस्थामें विशेष उलट-फेर किये बिना यह समस्या सुलझ जाय, किन्तु राज्य इस ओर विशेष ध्यान देने में असमर्थ रहा। फलतः ऐसी सामाजिक संस्था स्थापित हुई जो पिछली समाज संस्थाके विरोधी तत्त्वोंकी शिक्षा देने लगी। ऊपर हम समाजवादकी चर्चा कर आये हैं। इसका संगठन ऐसे ही तत्त्वोंके आधारपर हुआ है। पिछली सामाजिक संस्थाके अनुसार व्यक्ति पूँजीका अधिकारी माना गया है और राज्य उसकी रक्षा करता है, इसमें यह अधिकार व्यक्तिसे छीनकर राज्यको दिया गया है और इसके विरुद्ध आचरण करनेवाला व्यक्ति कठोर दण्डका भागी होता है । मूर्छा अब देखना यह है कि जिस आधारपर यह संघर्ष चाल है उसकी तहमें कौनसी मनोवृत्ति काम करती है। प्राचीन ऋषियोंने इसका गहराईसे विचार किया है। उन्होंने इसका कारण मूर्छाको बतलाया है । यह मी ऐसी वृत्ति है जिसके कारण विश्व में अनादिसे संघर्ष होते आये हैं और सदा होते रहेंगे। एक व्यवस्थाका स्थान दसरी व्यवस्था लेती है, पर इससे न तो संघर्षका अन्त होता है और न स्थायी शान्ति ही स्थापित हो सकती है। दार्शनिक चिन्तनकी भूल ___ व्यक्ति और राष्ट्रके जीवनमें सबसे बड़ी भूल उसके दार्शनिक चिन्तनमें यह है कि वह अपने सुखदुखका एक मात्र आधार बाह्य साधनोंके होने न होने पर अवलम्बित मान बैठा है, जिसने जितने अधिक बाह्यसाधनोंका संचय कर लिया है वह उतना ही अधिक अपनेको सुख मिलनेकी आशा करता है । साम्राज्पलिप्सा, पूंजीवाद, वर्गवाद, और संस्थावाद यहाँ तक कि समाजवाद भी इसका परिणाम है । ईश्वरवादको इसी मनोवृत्तिने जन्म दिया है । जगत्में संघर्षका बीज यही है। जब मन्ष्य इस तत्त्वज्ञानको स्वीकार कर लेता है कि अन्यसे अन्यका हित या अहित होता है तब उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि फिरकर बहिर्मखी हो जाती है। वह बाह्य साधनोंके जुटाने में लग जाता है और इस कार्य में सफलता मिलने पर उसे अपने जीवनकी सफलता मानता है। जीवनमें बाह्य साधनोंको सर्वथा स्थान नहीं है, यह बात नहीं है। दृष्टिको अन्तर्मुखी रखते हुए जीवनकी कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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