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________________ चतुर्थ खण्ड : १२३ साधनोंपर प्रतिबन्ध नहीं लगाता और समाजवाद केवल पूतिके साधनोंका समाजीक रण तो चाहता है पर आकांक्षाओंको सीमित करना अभी उसके लक्ष्यमें नहीं आया है । पूजीवाद प्रस्तुत विषमताका ऐसा ही गलत निदान और उपचार है, इसलिए उसका मुलोच्छेद जरूरी है। समाजवादका बाह्य उपचार ठीक है पर निदान ठीक न होनेसे वह स्थायी नहीं है। वह आर्थिक दबाव पड़ने पर पुनः विषमताका रूप धारण कर सकता है । व्यवस्थायें बाह्य उपचार है। रोगका अचूक निदान है मर्छा। वह भीतर से उठती है और जब तक इस मूलवृत्तिका शोधन नहीं होता तब तक शान्ति और सुव्यवस्था दुराशामात्र है । स्वतन्त्रता का अर्थ अब प्रश्न यह है कि इस मच्छ के त्यागके लिये व्यक्ति और राष्ट्र किस मार्गको स्वीकार करें। यह तो मानो हुई बात है कि मानव इतिहास और दर्शनका अन्तिम निचोड़ है व्यक्तिकी पूर्ण स्वतन्त्रता और चरम विकास । यहाँ स्वतन्त्रता शब्द विचारणीय है 'स्व' और 'तन्त्र' इन दो शब्दोंका मिलकर अर्थ होता है अपना शासन । इसका भावरूप अर्थ हुआ स्वाधीनता। प्रत्येक व्यक्तिका अन्यके आधीन न होकर मात्र अपने आधीन होना ही उसकी स्वतन्त्रता है। जब कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तिके अधिकारमें होता है तब वह पराधीन कहलाता है । दूसरेके अधिकारमें रहकर व्यक्ति इच्छानुसार अपना विकास नहीं कर पाता। बात-बातमें वह परमुवापेक्षी बना रहता है। वस्तुतः उसकी यह पराधीनता आरोपित है। सनातन प्रक्रियासे उसमें जो कमजोरियाँ आ गई है वही यह सोचनेके लिये प्रेरित करती हैं कि अन्यका सहारा लिये बिना उसका काम नहीं चल सकता । यही धारणा उसकी परतन्त्रता है और इससे मुक्ति पाना ही उसकी स्वतन्त्रता है । ___स्वतन्त्रता यह जड़-चेतन प्रत्येक व्यक्तिका नैसर्गिक अधिकार है। इसका ठीक तरहसे ज्ञान होनेपर व्यक्तिकी मर्जी अपने आप कम होने लगती है । श्रमण भगवान् महावीरने इस नैसर्गिक अधिकारकी ओर विश्वका ध्यान आकृष्ट किया था। इन्होंने गम्भीर वाणीमें कहा था-- "आबुसो ! अपनी स्वतन्त्रताके समान सबकी स्वतन्त्रता अनुभव करो। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य वस्तुको अपने अधिकारमें करनेकी इच्छा करता है तब वह उसे अपने अधिकारमें करने में तो समर्थ नहीं होता, मात्र स्वयं वह अपनी इच्छाओंका दास बन जाता है !" विश्वको प्रत्येक व्यक्तिके इस नैसर्गिक अधिकारको समझना है। राज्यने इसकी स्वीकृति दी है अवश्य, पर वह औपचारिक है । इसके आध्यात्मिक रहस्यको समझे बिना जीवनमें व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। विविध दर्शन और जगत् यों तो प्रागैतिहासिक कालसे विविध सिद्धान्तोंकी सष्टि होती आई है। मानवीय कमजोरियोंने भी इनके निर्माणमें बहुत कुछ हाथ बटाया है। इन सिद्धान्तोंका जीवनके उत्थान और पतनसे घनिष्ट सम्बन्ध है । इस युगमें जिन समस्याओंको राजनीतिक आधारसे सुलझाया जाता है पूर्व कालमें उनके हल करने में धार्मिक दृष्टिकी मुख्यता रहती थी। धर्मका दर्शनके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। सुपाच्य या दुष्पाच्य जैसा भी भोजन मिलता है उसीके अनुरूप जीवनका निर्माण होता है। दर्शन जीवनका सबसे बड़ा भोजन है। इसका व्यक्ति और राष्ट्र के जीवनपर गहरा प्रभाव पड़ता है। विश्व क्या है और व्यक्तिका उसके साथ क्या सम्बन्ध है ? यह समस्या निर्विवाद रूपसे अभी तक नहीं सुलझ सकी है । इसके अस्तित्व के विषयमें 'है' और 'न' का झगड़ा अभी तक लगा हुआ है। और भी ऐसे प्रश्न हैं जो विचारकोंको उलझनमें डाले हुए हैं। उनमें व्यक्तिकी स्वतन्त्रता और परतन्त्रतासे सम्बन्ध रखनेवाला प्रश्न मुख्य है। वेदान्त तथा उससे सम्बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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