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________________ विरल विभूति • श्री यशपाल जैन, दिल्ली सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्रीके प्रति मेरे मनमें बड़ी आत्मीयता और आदरभाव रहा है, इसलिए नहीं कि वह जैन- दर्शनके प्रकाण्ड पंडित हैं, इसलिए भी नहीं कि उन्होंने जैनधर्म और जैन वाङ्मयकी सराह - नीय सेवा की है, बल्कि इसलिए कि इतने विद्वान् होते हुए भी वह अत्यन्त सरल हैं, निरभिमानी और संवेदनशील हैं । प्रायः देखने में आता है कि विद्वान् अपनी विद्वत्ता और साबु अपनी साधुताके दंभसे आक्रान्त रहते हैं, किन्तु पण्डितजी ने अपनी विद्वत्ताको अपने मानव पर कभी हावी नहीं होने दिया । यही कारण है कि वह अहंकारसे युक्त रहकर सामान्य जनकी भाँति अपना जीवन जीते हैं । पंडितजी से सर्वप्रथम कब भेंट हुई, अब याद नहीं आया । धुंधला-सा स्मरण है कि किसी जैन समारोह में उनसे मिलना हुआ, लेकिन जब मैंने 'प्रेमी अभिनंदन ग्रन्थ' का कार्य अपने हाथमें लिया तो उनसे काफी पत्राचार हुआ । एक बार काशीमें उनके निवास स्थान पर भी गया और अनेक विषयोंपर उनसे चर्चा की । वे सब चर्चाएँ अब विस्मृत हो गई हैं, पर इतना ध्यान अब भी बना है कि उनकी विषय-प्रतिपादन शैलीमें न कहीं अस्पष्टता थी, न विचारोंमें जटिलता । उन्होंने जैन तत्त्व ज्ञानका शास्त्रीय ढंगपर अध्ययन किया है, उसकी सूक्ष्मताओं को समझा है, परन्तु अपने मौलिक चिन्तनसे उसे बहुत ही सबोध बना दिया है । पंडितजी का जन्म बुन्देलखण्ड के एक ग्राममें हुआ। वहींके एक विख्यात तीर्थ कुण्डेश्वरमें ७ वर्ष मुझे भी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अपने अनुभवके आधारपर सारे देशकी कई बार परिक्रमा करनेके बाद, कह सकता हूँ कि वहाँकी भूमि और जन की आज भी अपनी विशेषता है । यद्यपि समयने और परिस्थितियोंने बहुतकुछ परिवर्तित कर दिया है, तथापि वहाँका लोकजीवन आज भी बड़ा निष्कपट है । पंडितजीको बचपनमें अपनी जन्म भूमिसे जो संस्कार प्राप्त हुए, उनकी जड़ें उत्तरोत्तर मजबूत होती गयीं। उनका कर्मक्षेत्र व्यापक बना, उनके ज्ञानका भण्डार विस्तृत हुआ, पर उनके हृदयकी निर्मलता यथापूर्व बनी रही । जैनधर्म, जैनदर्शन और जैन साहित्यकी पंडितजीने अथक सेवा की। उन्होंने 'षट्खण्डागम' (धवला ) के सम्पादन में जैनतत्त्ववेत्ता डॉ० हीरालालका हाथ बँटाया, 'तत्त्वार्थसूत्र' की हिन्दी में टीका तैयार की, 'सर्वार्थसिद्धि' की हिन्दी टीका लिखी । 'पंचाध्यायी' तथा 'लब्धिसार' का सम्पादन किया, और भी बहुत से ग्रन्थोंके सम्पादन तथा अनुवादमें योगदान दिया। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि जैनधर्म और जैनदर्शनके ये ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनका अनुशीलन करके भारतीय पाठकोंको अनुवाद और टीका द्वारा सुलभ करना आसान नहीं था; लेकिन पण्डितजीने तो अपने जीवनको उसी दुरूह कार्यके लिए समर्पित कर दिया था । वह दर्शनको गहराईयोंमें डुबकी लगाते गये और मूल्यवान से - मूल्यवान रत्न निकाल कर लाते रहे । सबसे बड़ी बात उन्होंने यह की कि उनको जो निधियाँ प्राप्त हुईं, उन्हें अपने तक ही सीमित नहीं उसे युक्तभावसे समाजको दिया । पंडितजी जितना देते गये, उतना ही रक्खा । अत्यन्त उदारतापूर्वक अपने अर्जनका विसर्जन किया । जो पाया, जो निःस्वार्थ भावसे देता है, उसका भण्डार कभी रिक्त नहीं होता। उनका भण्डार समृद्ध होता गया । तृतीय खण्ड : ८३ पण्डितजी लेखनी के जितने धनी हैं, उतने ही धनी वाणीके भी हैं । बड़े ओजस्वी वक्ता हैं। मुझे याद आता है कि अ० भा० जैन विद्वत् परिषद् के एक अधिवेशनमें पण्डितजी किसी दुरूह विषयपर बोले कि और श्रोता मुग्ध होकर बहुत देर तक उन्हें सुनते रहे थे । एक नहीं, प्रायः सभी अवसरों पर ऐसा ही होता है । अपने विषयके सरल प्रतिपादन के साथ-साथ श्रोताओं की बहुत-सी शंकाओंका भी वह सहज - समाधान कर देते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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