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________________ ८२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ क्षयोपशम अच्छा था, मेधा तेजोमय थी, लगनपूर्वक किए गये सतत शास्त्राभ्यासने उन्हें बड़े-बड़े ग्रन्थोंके सम्पादन, अनुवाद, टीकाव्याख्यादिमें निष्णात बना दिया और शास्त्री पण्डितोंकी अग्रिम पंक्तिमें प्रतिष्ठित करा दिया। इस लेखन कार्यसे जो अतिरिक्त आय हई उसके बल पर गार्हस्थिक दायित्योंका निर्वाह सन्तोषजनक रूपसे हो पाया, पुत्र-पुत्रियोंका लालन-पालन किया, उन्हें उत्तम शिक्षा दिलाकर, विवाहादि करके अपने पैरोंपर खड़ा कर दिया। जो कुछ किया स्वपुरुषार्षसे किया। इस बुद्धिजीवी विद्वानकी निजी आवश्यकताएं अति सीमित तथा खान-पान, रहन-सहन बड़ा सादा एवं सरल रहा । वह खादीव्रती रहते आये है, और स्वातन्त्र्य संग्राममें सक्रिय भाग लेनेके कारण १९४१ में तीन मासका कारावास भी भोगे हुए हैं। अब तो जीवनकी सन्ध्यामें, लौकिक क्षेत्रमें प्रायः कृतकृत्य होकर एक उदासीन श्रावकके रूपमें इन्दौरमें रहकर अपनी वृद्धावस्थाको सार्थक कर रहे हैं । श्री पण्डितजीका सम्पूर्ण जीवन जैन शास्त्रोंके अध्ययन अध्यापन, धवल, जयधवल, महाधवल जैसे अगामिक ग्रन्थराजों तथा तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थसिद्ध, आत्मानुशासन, लब्धिसार, पंचाध्यायी प्रभृति महत्त्वपूर्ण शास्त्रोंके सम्पादन, अनुवाद, टीका-व्याख्या आदि जैनतत्वमीमांसा एवं वर्ण-जाति और धर्म जैसी मौलिक कृतियोंके प्रणयन, ज्ञानपीठ पूजाञ्जलिका सम्पादन, खानिया-तत्त्वचर्चा जैसी विस्तृत शास्त्रीय चर्चा, पत्रोंमें शंका-समाधान, अनेक विविधविषयक शोध-खोजपूर्ण गंभीर लेखों-निबन्धों आदिके लेखनमें व्यतीत हुआ है । साथ ही वह श्रेष्ठ प्रवचनकार एवं ओजस्वी सुवक्ता हैं । आगम ग्रन्थोंका आलोचन करनेका उन्हें सुअवसर मिला, फलस्वरूप कर्म-सिद्धान्तका तो उनके समकक्ष तलस्पर्शी मर्मज्ञ वर्तमानमें स्यात् ही कोई अन्य हों। जब अध्यात्मवाद एवं निश्चय-धर्मकी ओर उनकी दृष्टिका कुछ विशेष झुकाव हुआ तो अनेक पण्डितोंने उनकी आलो तु वह कुछ विशेष दमदार प्रमाणित नहीं हुई। पण्डितजीके लेखनमें, और वक्तताओं एवं चर्चाओंमें भी, एक सुलझी हुई दृष्टि एवं स्वतन्त्र विचार प्रवृत्तिके दर्शन होते हैं। वह कई पुरातन ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थों या मन्तव्योंकी पर्यालोचना करते रहे हैं, किन्तु वह आलोचना प्रायः सदाग्रहविहीन और युक्तियुक्त अथवा तर्कपूर्ण रही । वह दिगम्बर आम्नायके मूलाधार आगमों एवं आगमिक साहित्यके मन्तव्योंका अतिक्रमण नहीं करती। इस प्रकार वर्तमान शताब्दीके जिन विद्वानोंने जैन भारतीके भण्डारको सर्वाधिक समृद्ध किया है तथा जैन धर्म, संस्कृति, सिद्धान्त एवं दर्शनको समझनेकी सम्यक दृष्टि प्रदान करनेमें योग दिया है, उनमें श्री पं० फलचन्द्रजी शास्त्रीका स्थान चिरस्मरणीय रहेगा। ___ हमारे तो पण्डितजीके साथ पचासों वर्ष पुराने सम्बन्ध हैं । वह हमारी अग्रज पीढ़ीके विद्वान् हैं । उनसे स्नेह एवं प्रेरणा निरन्तर मिलती रही है। जब भी लखनऊ पधारे या पाससे भी निकले अथवा कानपुर आदि भी आये, तो उन्होंने हमें दर्शन देनेकी अवश्य कृपा की । स्वभावके भी बडे विनोदी हैं दूसरों पर तो हँस ही सकते हैं, वह स्वयं ही अपने ऊपर हँस सकते हैं । अपनी दुर्बलताओंको भी ढोंगके आवरणमें ढंकनेका प्रयल नहीं करते, लजीली मुस्कानके साथ उन्मुक्त स्वीकार कर लेते हैं विद्वानोंमें यह बात प्रायः विरल ही होती है। हमारे तो वह सदैव आदरके भाजन रहे हैं। बड़े भाग्यसे ऐसे वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, अनुभववृद्ध अग्रजोंकी स्नेहपूर्ण कृपा प्राप्त होती है। __इस सुअवसर पर हम अपने उन गुरुतुल्य अग्रज बन्धु पंडितप्रवर फुलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य के चिरायुष्य, सुस्वास्थ्य एवं सार्थक एवं वार्धक्यकी मंगलकामना करते हुए, उनके प्रति आदरपूर्ण स्नेहांजली अर्पित करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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